Friday, December 26, 2008

सूमो टिंगो हमारे सूम को नहीं पछाड़ सकता

—चौं रे चम्पूस! कोई ऐसी बात हतै तेरे पास जाते मन खुस है जाय?
—क्यार दोगे अगर ऐसी कोई बात बताई?
—आसीरवाद दिंगे और का!
—बड़े कंजूस हो चचा! चलो एक खुशी की बात बताता हूं कि अंग्रेज़ी की एक किताब में ‘कंजूस मक्खीडचूस’ शब्दच को आदरपूर्वक स्थांन दिया गया है।
—कौन-सी किताब ऐ?
—बड़ा हल्लाच है किताब का। ब्रिटिश राइटर एडम जाको द बोइनोद ने बनाई है।
—बड़ौ बिचित्र नाम ऐ।
—विचित्र तो किताब है चचा। तीस साल श्रम करके उसने पूरी दुनिया की विभिन्नय भाषाओं से ऐसे शब्दत तलाश किए जो अनोखे हैं और ऐसा अर्थ देते हैं जिन्हें सुन कर झुरझुरी-सी आ जाए, जुगुप्साि हो या भय का कंपन व्या प्तस हो जाए, शरीर में। किताब का नाम है— ताउजोर्स टिंगो।
—किताब कौ नाम ऊ बिचित्र ऐ। मतलब का भयौ?
—एस्टबर आईलैंड में प्रचलित एक शब्दा है ‘टिंगो’। टिंगो एक प्रवृत्ति है। आप अपने पड़ोसी से कुछ मांगने जाओ, मिल जाए तो फिर कुछ मांगने जाओ और तब तक मांगते रहो जब तक कि उसका घर ख़ाली न हो जाए। देखा, शब्दा ज़रा-सा है और अर्थ सोचने बैठो तो कितनी ही कहानियां जन्म ले सकती हैं। मांगने वाले से कोई दुःखी हो जाए तो हमारे यहां कहते हैं— ‘आंती आना’। होते हैं कुछ लोग ऐसे, जो मांगते ही रहते हैं। देने वाला आंती आ जाता है, पर अपने दानशील स्वेभाव के कारण देने से मना नहीं करता। पर चचा, भाषाएं कभी आंती नहीं आतीं। वे उदार होती हैं। अफसोस है कि एडम ने हिंदी से केवल दो शब्द-युग्मा लिए। अगर उसका टिंगोनुमा इरादा होता और हमसे हमारे मुहावरे और हमारी कहावतें मांगता, हम देते जाते, देते जाते, फिर भी हमारा घर खाली नहीं होता। हमारी भाषाओं के पास लोकोक्तियों, मुहावरों और कहावतों का अथाह भंडार है। ताउजोर्स टिंगो का हल्ला हो गया। ऐमेज़ॉन डॉट कॉम पर धकाधक बिक रही है। इधर हमारे अरविंद कुमार के थिज़ारस की मामूली-सी चर्चा होकर रह गई। शब्दोंह का जितना शोध अरविंद कुमार ने किया है आधुनिक युग में उतना संसार के कुछ गिनेचुने भाषा-शास्त्रियों ने ही किया होगा। वे भी चालीस साल से समांतर कोश बनाने में लगे हुए हैं। कंजूस के कितने ही पर्यायवाची प्रसंग उनके कोश में मिल जाएंगे। संसार का सबसे बड़ा थिज़ारस है। इसी तरह डा. भोलानाथ तिवारी ने हिंदी का बृहत लोकोक्ति कोश बनाया। शब्दों के अनुसंधान पर ज़िंदगी खर्च‍ कर दी। हिंदी के दिग्गलज लोग भोलानाथ का भाषा-विज्ञान के लिए ‘भाषा नाथ का भोला-विज्ञान’ कहकर मज़ाक बनाते रहे। हमारे यहां प्रशंसा में बेहद कंजूसी बरती जाती है।
—एडम कूं कंजूस-मक्खींचूस में का खास बात दिखी भैया?
—ख़ास बात हमें नहीं दिखती, क्यों कि हम बचपन से सुनते-सुनते इसके आदी हो गए हैं, लेकिन कोई विदेशी अगर अपनी भाषा में मक्खी चूस का अनुवाद पढ़ेगा तो मक्खी के चूसने की कल्पवना से ही उसे ज़बरदस्ती झुरझुरी आ जाएगी। कंजूस के लिए एक शब्दे है सूम। सूम की कहानी दो दोहों में सुनो चचा— ‘जोरू बोली सूम की, क्यों् कर चित्त मलीन। का तेरौ कछु गिर गयौ, का काहू कछु दीन?’ सूम जवाब देता है— ‘ना मेरौ कछु गिर गयौ, ना काहू कछु दीन। देतौ देखौ और कूं, तांसू चित्त मलीन’। कोई किसी को कुछ दे रहा है, इसी से सूम दुःखी हो जाता है। कितना भी सूमो जितना बलशाली टिंगो हो हमारे सूम को नहीं पछाड़ सकता। वह सूम से कुछ लेकर तो दिखा दे। बहरहाल, एडम की किताब तो टिंगो-टैक्नीक से बन ही गई।
—हिंदी कौ दूसरौ कौन सौ सब्दर लियौ?
—ये कहानी भी दिलचस्पस है चचा। दो दिन पहले एक टी.वी. चैनल से मेरे पास एक फोन आया, इस खुशखबरी का कि हमारे दो शब्दर लंदन में आदर पा रहे हैं। कंजूस-मक्खीैचूस तो उनकी समझ में आ गया था, दूसरा रोमन में लिखा होने के कारण समझ में नहीं आया। और जैसा उनकी समझ में आया, वैसा मेरी समझ में नहीं आ पाया। वे पूछने लगे— ‘काती कहरी’ क्याज होता है? मैंने कहा कि भैया ‘काती कहरी’ मैंने तो सुना नहीं। वे कहने लगे— शेर की खाल से काती हुई किसी चीज़ को नापने जैसा कोई भाव है। मैंने दिमाग दौड़ाया। व्यांघ्र-चर्म तो सुना था पर शेर की खाल का धागा…. वह तो बनता नहीं, जिसे कात-बुन कर नापा जाए। और दिमाग दौड़ाया। सोचने लगा कि ‘काती कहरी’ को रोमन में कैसे लिखा गया होगा? झट से समझ में आ गया। शब्दे रहा होगा ‘कटि-केहरी’। शेर की कमर को नापने का संदर्भ रहा होगा। सोचो चचा, शेर की कमर को नापने का काम किसी को सौंपा जाए तो उसे झुरझुरी आएगी कि नहीं? ऐसे ही हज़ारों शब्दोंन का संकलन किया है एडम साहब ने।
—किताब कित्ते रुपैया की ऐ?
—भारतीय मुद्रा में केवल पाँच सौ कुछ रुपए की।
—इत्ते रुपैया खर्च करिबे ते अच्छौौ ऐ कै कटि-केहरी नाप कै आ जायं, तुम भलेई हमें कंजूस मक्खीतचूस बताऔ। का फरक परै?

Friday, December 19, 2008

16वीं जयजयवंती साहित्य-संगोष्ठी


हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी
ब्लॉग-पाठ : एक सिलसिला

मुख्य अतिथि : डॉ. प्रभा ठाकुर, वरिष्ठ कवयित्री एवं सांसद
अध्यक्ष : डॉ. रामशरण जोशी, उपाध्यक्ष, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान
सम्मान : वरिष्ठ भाषाविद् प्रो. सूरज भान सिंह को 'जयजयवंती सम्मान' एवं उनके कम्प्यूटर पर हिन्दी सॉफ्टवेयर 'सुविधा'
प्रस्तावना : डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, कम्प्यूटरकर्मी भाषाविद्
ब्लॉग-पाठ : श्रीमती प्रत्यक्षा, डॉ. आलोक पुराणिक, श्री रवीश कुमार, श्री अविनाश वाचस्पति एवं श्रीमती संगीता मनराल

आप सादर आमंत्रित हैं।
अशोक चक्रधर
अध्यक्ष, जयजयवंती
(संयोजन)
26941616

राकेश पांडेय
संपादक, प्रवासी संसार
(व्यवस्था)
9810180765

24 दिसम्बर 2008 / बुधवार
सायं 6.30 से चाय-कॉफी / 6.50 कार्यक्रम आरंभ

गुलमोहर सभागार, इंडिया हैबीटैट सैंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली
संरक्षक : श्री गंगाधर जसवानी एवं पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर (मंत्री, चित्र कला संगम)

Thursday, December 18, 2008

हाथ भी नहीं बचेंगे मलने के लिए मलाल में

—चौं रे चम्पू! पाकिस्तान कूं कत्थ,ई चावल चौं नांय पच रए?
—इसलिए नहीं पच रहे क्योंकि इंसान के खून में पकाए गए हैं। लेकिन चचा, कत्थई चावल कौन से हुए? हमारे यहां से तो बासमती चावल जाते हैं| हालांकि, वे इस लायक नहीं हैं कि हमारे सुवासित बासमती चावल का लुत्फ उठा कर आतंकवाद की बास इधर भेजते रहें। निर्यात फौरन बंद कर देना चाहिए।
—ठीक कही लल्ला! पर ....कमाल ऐ, तोय कत्थई चावल कौ कछू पतौ नांय!
—माफ करना चचा। मैंने गुलाबी चना तो सुना लेकिन कत्थरई चावल के बारे में वाकई नहीं जानता।
—अरे हट्ट पगले! हम कै रए ऐं ब्राउन और राइस के बारे में। ब्राउन और राइस उन्हेंा पचे नईं।


—कमाल कर दिया चचा तुमने भी! दूर की कौड़ी फोड़ कर लाने लगे हो, चूरन बनाके। मैं शब्दों में निहित स्वाद, गंध और नाद पर गया, अनुवाद तक नहीं जा पाया। शब्दों से खेलने लगे हो। अरे, अब हम कहां के कवि रहे? कवि की पदवी तुम्हेंन मिल जानी चाहिए। शब्दों से नए-नए अर्थों का जलवा बिखरा रहे हो।
—आजकल्ल सब्दवन कौ खेल तौ अखबार कर रए ऐं। नाम एक ऐ, पर तीन तरह ते लिख्यौ जा रह्यौ ऐ। वा आतंकवादी कूं कोई कासब कहै, कोई कसब, कोई कसाब।



—हां चचा! हम इसको ‘कस अब’ भी पढ़ सकते हैं। अंग्रेज़ी में तो स्पेलिंग एक ही है, उसे हिन्दी में कैसे भी पढ़ लो। नर्मदा प्रसाद नर मादा प्रसाद हो जाते हैं। चचा, जैसे ही कासब को कसा गया, उगल दिया उसने। विडम्बना ये है कि पुलिस की हिरासत में जो भी बोलेगा, कहा जाएगा कि कसाब के ऊपर कसाव बनाकर कहलवाया गया है। पर उनके अपने टी.वी. ने स्टिंग ऑपरेशन करके जो पूरी दुनिया को दिखा दिया उसे थोड़े ही झुठला सकते हैं। गांव वालों ने सच्चा-सच्चा बोल दिया कि अपना ही बच्चा है। पाकिस्तानी प्रशासन को चेत आया तो गांव की ज़बान पर ताला लगा दिया गया। फरीदकोट में फर का कोट ओढ़ा-ओढ़ा कर सबको मौन कर दिया गया। लेकिन देर कर दी उन्होंने। बात तो पूरी दुनिया तक पहुंच ही गई कि आतंकवाद के शिविर-अड्डे और इंसानियत के लिए गड्ढे, पाकिस्ताआन में सबसे ज़्यादा हैं। ….इतना भी समझ लो चचा कि मुम्बई के मामले में ब्राउन और राइस का पाकिस्तान जाकर डांटना सिर्फ़ इसलिए नहीं हुआ है कि भारत के साथ उनकी कोई ख़ास हमदर्दी है, इसलिए हुआ है कि आतंकवाद की मार उन्हों ने खुद भी झेली है। ब्राउन के खुफिया-तंत्र का मानना है कि उनके यहां हुई आतंकवादी घटनाओं में तीन-चौथाई हाथ तो पाकिस्ताुन के प्रकांड आतंकवादियों का ही रहा है। अमरीका पहले ही एक तगड़ा झटका झेल चुका है। ब्राउन और राइस के बाद अमरीका के सीनेटर जॉन कैरी के हस्तक्षेप से भी पाकिस्ता न अब सहम गया है चचा। कुछ महीने हम निश्चिंत रह सकते हैं कि आतंकवाद की कोई बड़ी घटना होगी नहीं। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी साहब को भी गिलानी हो रही है।
सारा दोष ग़रीबी के मत्थे मढ़ रहे हैं। मीडिया के सामने संभल कर बोल रहे हैं।
—मीडिया में बड़ी ताकत ऐ।
—हां चचा, मीडिया ने अपनी ताकत का जलवा दिखा दिया। ये जो कासब कसब कसाब का राइफल के कसाव के साथ फोटो छपा है, कमाल कर दिया। तगड़ा टेली लैंस लगा कर जिस भी छायाकार ने वह चित्र लिया है, उसे थैंक्यूा, धन्य वाद, शुक्रिया देना चाहिए। चचा, लेकिन मीडिया भी टी.आर.पी. के तवे पर समाचार सेंकता है। हां, इतना है कि पड़ोसी देश का मीडिया झूठ का जो विस्तालर करता है उसका सौंवा हिस्सा भी हमारे यहां नहीं होता। कितना भी हम मीडिया को कोसें लेकिन तस्वीररें हक़ीकत के आसपास बनी रहती हैं।
—सरसंघ चालक सुदरसन जी तौ कह रए ऐं कै कर देओ आक्रमन! हौन देओ परमानु युद्ध।
—कोई ज़िम्मेदारी तो है नहीं, कुछ भी बोल सकते हैं। पड़ौसी देश में ऐसे ही वक्तव्यों को देश का नज़रिया मान लिया जाता है। सुदर्शन जी को यह नहीं मालूम कि परमाणु युद्ध के परिणाम अब वैसे नहीं होंगे जैसे हिरोशिमा-नागासाकी में थे। अब तबाही ऐसी होगी कि त्राहि-त्राहि भी मुंह से नहीं निकल पाएगा। इसलिए दोनों देशों के युद्ध भड़काऊ नेताओं को भी कसकर रखना होगा। अच्छां है कि पाकिस्तांन में इन दिनों जैसी भी है डैमोक्रैसी तो है। अगर कहीं होता सैनिक शासन, तो भड़काऊ तक़रीरों के प्रभाव में आकर युद्ध-युद्ध खेलने को मचलने लगता। दबाव में सही, धीरे-धीरे सही, पर वहां के चुने हुए नेता मान तो रहे हैं कि गड़बड़ उनके यहां है। वहां के जनतांत्रिक नेताओं की समझ में यह बात आ रही है कि अगर हम फंस गए परमाणु आयुधों के जंजाल में, तो हाथ भी नहीं बचेंगे मलने के लिए मलाल में।

Wednesday, December 10, 2008

हंग निहंग विहंगम जंगम

--चौं रे चम्पू! कूट का होय?
--कूट के तो बड़े अर्थ हैं। एक अर्थ है कपट। दूसरा... पर्वत को भी कूट कहते हैं, जैसे रेणुकूट। कूट माने गुप्त और गोपनीय भी होता है। उसी से बनी कूटनीति। और कूटना तो आप जानते ही हैं, जैसे असभ्य पति अपनी पत्नी। को कूटते हैं और सभ्य। पत्नियां अपने पति को कूटती हैं।
--अरे तू तो कविता लिख्यौ करै, कूट और कविता कौ का संबंध ऐ?
--वह होता है कूट-काव्यन।
--कूट-काव्यि के बारे में बता?
--तुम्हें मालूम तो सब है चचा! कूट-काव्यऐ वह काव्य जो आसानी से समझ में न आए। जिसका अर्थ बड़ी मुश्किल से निकले।
--तो सुन, मैं एक कूट-काव्यर सुनाऊं, वाकौ मतलब समझा।
--परीक्षा ले रहे हो?
--अरे तेरी क्याे परीच्छा लैनी! ऐसी कौन-सी तेरी इज़्झजत ऐ, जो न बता पायौ तौ बिगड़ जायगी। चल अर्थ बता--
हंग विहंग निहंगम जंगम,
गमन गम न कर, नंगम संगम।
--ये कूट-काव्यस काहे का है चचा, अर्थ तो साफ निकल रहा है। पीछे से शुरू करो। चुनाव के संगम पर नंगों का गमन हुआ। परिणाम ऐसे आए कि कोई गम न करे, बस गमन करे। ये तो हो गई निचली लाइन। ठीक?
--ठीक! अब ऊपर की लाइन कौ अर्थ बता-- हंग निहंग विहंगम जंगम।
--चचा, इसका अर्थ भी सुन लो। पीछे से शुरू करता हूं। जमकर जंग हुई। उसके बाद विहंगम दृश्यच देखने को मिले। कांग्रेस दिल्ली , राजस्था।न और मिजोरम में जीत गई और छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश में भाजपा जीती। अब मालाएं पड़ रही हैं। ढोल-तासे बज रहे हैं। जो भीतरघात करने वाले थे, वे सबसे पहले बधाई देने जा रहे हैं। ग़लतफहमियां दूर हो रही हैं। अहम ग़लतियां हो रही हैं। विहंगम दृश्यव हुआ कि नहीं? और निहंग वे लोग होते हैं, जो प्रतिबद्ध होते हैं, कटिबद्ध होते हैं, एक पंथ के अनुयायी होते हैं और शांत रहते हैं। हथियार रखते हुए भी जो विनम्रता बनाए रखे वह निहंग। शीला दीक्षित और अशोक गहलौत अब निहंग की तरह काम कर सकते हैं, क्योंहकि विकास की राह में कोई रोड़ा नहीं होगा और सरकार ऐसी बना सकते हैं जिसमें कोई थका हुआ घोड़ा नहीं होगा।
--ठीक। चल मान लिया। अब हंग बता।
--चचा हंग शब्दल हिंदी में तो है नहीं।
--अटक गयौ न!
--खुल गया चचा, हंग का कूट भी खुल गया। दिल्ली में बहुत सारे चुनाव विशेषज्ञों को ये डबका था कि यहां हंग सरकार आएगी। त्रिशंकु सरकार बनेगी। बसपा की घुसपैठ के कारण नुकसान कांग्रेस को होगा। लेकिन मामला पल्टीक खा गया। कांग्रेस ने कूट के धर दिया भाजपा को। बसपा भाजपा के लिए भारी पड़ गई। कमल के फूल पर कुर्सी नहीं सज पाई। कुर्सी वहीं की वहीं रही। जीत गया दिल्लीप का हरा-भरा विकास और आत्मलविश्वाकस से भरा-भरा शीला आंटी का चेहरा। हंग सरकार नहीं बनी। जो काम हुआ, मैं तो समझता हूं कि ढंग का हो गया।
--कैसे?
--क्यों कि जनता जान चुकी है कि थोथे और ऊपरी नारों से बात बनती नहीं है। भाजपा आ जाती तो क्याा महंगाई रोक लेती? आतंकवाद रोक लेती? आतंकवाद को समेटने के लिए अनुत्तेजक समझदारी की आवश्यआकता होती है और विकास के लिए निरंतरता की। शीला आंटी ने विकास की जो निरंतरता बनाई थी उसमें गतिरोध आ जाता। माना कि काम फिर भी होते। मैट्रो फिर भी विकसित होती, लेकिन हर काम के लिए टेंडर दुबारा खुलते। अधिकारी बदले जाते और बदले की भावना प्रबल होती। चुनाव आने से पहले राज-मिस्त्रियों कारीगरों के जो पेचकस, छैनी, हथौड़े, फावड़े जैसे औज़ार शांत पड़े थे, अब दनादन कूटम-कूटम करेंगे। काम की रफ्तार बढ़ जाएगी। रेडियो पर मैट्रो के बारे में एक विज्ञापन सुना था— 'मियां जुम्मटन, जवाहर, दीप सिंह, पीटर मेरे भाई! कहां पर बैठे थे हम, और कहां जाके निकाला है, मैट्रो का मेरी दिल्लील में ये, जादू निराला है'। हम कांग्रेस की मैट्रो में बैठे थे, दस साल सवारी करी और कांग्रेस के ही स्टेरशन पर उतर आए। ये कूट-काव्या कांग्रेसियों की समझ में भी आ जाए तो सेमीफाइनल के बाद फाइनल में भी उनका जलवा हो सकता है। दो चीज़ों की दरकार है-- समझदारी की निरंतरता और निरंतरता की समझदारी। जीत ऐसे ही नहीं होती है। जीत के लिए किए जाते हैं प्रयास। और प्रयासों में भागीदारी से जीता जाता है भरोसा। जो जीते हैं, उन्होंंने भरोसा जीता है।
--वाह रे कूटकार चम्पूा!

Thursday, December 04, 2008

प्राइमरी से लेकर हाईमरी तक

--चौं रे चम्पू! भारत कौ सुभाव नरमाई कौ ऐ कै गरमाई कौ?
--गरमाई का होता चचा, तो एक भी आतंकवादी इस तरह नचा नहीं सकता था, और अगर नरमाई का होता तो कोई भी आतंकवादी बचता कैसे? लेकिन ये बात सच है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ हमारा रुख़ इतना कड़ा नहीं है, जितना कि होना चाहिए। कानून में अनुच्छेद कम छेद ज़्यादा हैं। इन्हीं छेदों में से आतंकवादी अन्दर आ जाते हैं, इन्हीं से बाहर निकल जाते हैं।
--तौ छेद छोड़े ई चौं ऐं?
--अब इसका क्या जवाब दूं चचा! संविधान बनाने वाले ज़्यादातर लोग ऊपर चले गए। कोई रास्ता भी नहीं छोड़ गए कि आसानी से छेद मूंदे जा सकें। संसद में एक पार्टी का वर्चस्व हो तो कानून भी बदले। यहां तो मिली-जुली सरकार में बदले-बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं। कोई दिल बदले, कोई दल बदले। बदलने की भावना की जगह बदले की भावना! फिर कानून कैसे बदले?
--जनता साथ दे तौ सब कछू बदल सकै।
--जनता का ज़िक्र करके चचा, तुमने मेरी दुखती रग पर उंगली रख दी। कौन सी जनता? रंग, वर्ण, सम्प्रदाय, जाति, गोत्र, धर्म में बंटी जनता! अल्पसंख्यक जनता या बहुसंख्यक जनता! आरक्षित जनता या अनारक्षित जनता! निरक्षर, अनपढ़, गंवार जनता या पढ़ी-लिखी तथाकथित समझदार जनता! शोषित जनता या शोषक जनता! हमारे यहां हंसोड़ संता और बंता की पहचान तो है पर जनता की कहां है?
ऐसी बिखरी हुई जनता के बलबूते कानून नहीं बदले जा सकते।
--सरकार है कै नईं ऐ? वाऊ की कछू जिम्मेदारी हतै कै नांय?
--ये दूसरी दुखती नस है। सरकार है भी और नहीं भी है। होती तो अपने वोटरों की फ़िक्र करती। ये वोटर पाँच साल बाद काम में आते हैं! फिर क्या? दरअसल, सरकार को अपने बचने-बचाने की फ़िक्र ज़्यादा रहती है। इस एक अरब की आबादी में सौ, दो सौ, हज़ार, दो हज़ार मर भी जाएं तो फ़र्क क्या पड़ता है? मुम्बई में अगर फ़र्क पड़ा है, तो इस कारण क्योंकि मामला ताज नामक फाइव स्टार होटल का है और मीडिया मुंह खोले खड़ा है। पल-पल की ख़बर मिल रही है कि लोकतंत्र की इमारत दस सिरफिरों के कारण बुरी तरह हिल रही है। सच पूछो चचा, तो हमारे नेताओं में आतंकवाद से लड़ने की इच्छाशक्ति है ही नहीं। न उपायों को खोजने का कोई संकल्प है।
--अच्छा तू सरकार मैं होतौ तो का करतौ, जे बता?
--फंसा लिया न चचा! पहला काम तो ये करता कि प्राइमरी से लेकर हाईमरी तक.....।
--हाईमरी?
--हां ये मरी हाई ऐजुकेशन। सब जगह पाठ्यक्रम में ‘आतंकवाद’ एक विषय बना देता। बच्चों से लेकर चच्चों तक सबको सिखाया जाता कि ये कैसे ये फलता-फूलता-फैलता है और कैसे इसे टोका-रोका जा सकता है और कैसे दिया जा सकता है धोखेबाज़ों को धोखा। आतंकवादी आसमान से नहीं उतरते। कॉलोनी हो या होटल, किराए पर कमरा लेते हैं। पैसा मुंह पर मार के विश्वास ख़रीदते हैं। जिस बोट में बैठकर समंदर से चंद लोग आए, उसका किराया था अठारह हज़ार प्रति घंटा। बोट वाले ने पैसा लिया, उसे क्या टंटा? जहां वी.आई.पी. हों और ग़रीब जनता सुनने जाए, वहां तो होगी तलाशी की भरपूर इंतज़ामी, पर फाइव स्टार होटल में विदेशी कार से उतरो तो मिलेगी ताल ठोक सलामी। प्यार लाए हो या हथियार कौन देखेगा? सुरक्षा में बड़े लोचे हैं चचा।
--अमरीका तौ चाक-चौबंद हतो, वहां कैसे घुस गए?
--ग्यारह सितंबर के बाद आतंकवाद वहां कोई सितम कर पाया क्या? उन्होंने अपनी सुरक्षा इतनी मज़बूत कर ली कि अब वहां कोई आतंकवादी गतिविधि असंभव नहीं तो मुश्किल तो हो ही गई है। भारत में बहुत आसान है। तुमने ठीक कहा था कि भारत नरम है और ये भी सही है कि अमरीका गरम है। आतंकवाद रूपी राहु भारत को रोज़-रोज़ ग्रस सकता है, अमरीका को नहीं। माघ ने ‘शिशुपाल वध’ के एक श्लोक में कहा था...
--फिर संसकिरत छांटैगौ का?
--तो तुम अनुवाद ही सुन लो। श्लोक का सार ये है कि अपराध समान होने पर भी राहु सूर्य को चिरकाल बाद और चन्द्रमा को जल्दी-जल्दी ग्रसता है। यह चन्द्रमा की कोमलता, शीतलता और नर्मी का साक्षात प्रमाण है। भारत की नर्मी अच्छी है पर आतंकवाद के सामने गर्मी दिखानी पड़ेगी चचा।
--जेई तौ अपनी तमन्ना ऐ।

Wednesday, November 19, 2008

तेरी बात नईं पची

--चौं रे चम्पू! भावनान कूं रोकिबे कौ का उपाय ऐ?
--चचा, मार दिया। पापड़ बेलने वाले बेलन की मूठ से। अब काम नहीं चलेगा झूठ से। दरअसल, भावनाएं इंसान की चेतना को इस कदर बेलती हैं कि उनके विस्तार को अस्तित्व की तंत्रियां बड़ी मुश्किल से झेलती हैं। लेकिन आप तो उस संतई तक पहुंच चुके हैं जहां भावनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकता है। आप मुझसे क्यों सवाल करते हैं? ज़रूर आपके पास कोई जवाब है, आप ही बता दें।
--नायं तू ई बता।
--चचा, भावना हमारे यहां बहुतायत में पाई जाने वाली चीज़ है। पिछले दिनों एक अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण करने वाली संस्था ने पाया कि इस धरती पर सबसे ज़्यादा भावुक लोग भारत में पाए जाते हैं। भा से भारत और भा से भावना। भावना का खेल निराला है। भावना को भाव ना मिले तो भाव खा जाती है और भीतर ही भीतर भयंकर, भयावह भभूके उठाती है। भावना के ऊपर दिमाग का ज़ोर चले तभी काबू में आ सकती है। मनुष्य का अस्तित्व भी एक बगीची है चचा, जिसमें भावना और ज्ञान का मल्ल-युद्ध चलता रहता है। भावना जीत गई तो ज्ञान गया गड्डे में और ज्ञान जीत गया तो भावना गई भाड़ में। अखिल ब्रह्मांड में मनुष्य अनुपम कृति है। अचरजों से भरा है यह शरीर। कहा गया है-- ‘दुर्लभं मानुषं देही’। पर यह भी जानते हैं कि ‘देहिनां क्षणभगुंर:’। इस सर्वोत्तम कृति को समाप्त भी होना है। ‘जीवानां मृत्योर्ध्रुवम्’।
--भौत संसकिरत बोल रयौ ऐ?
--चचा! मृत्यु ध्रुव है यानी अटल। जितनी ज़िंदगी है वही है असल। मिर्ज़ा ग़ालिब कह गए हैं कि जिस शख़्स को जिस शग़ल में मज़ा आता है उसके लिए वही ज़िंदगी है। ज्ञान की लगाम पकड़े बिना भावना के घोड़े पर बैठोगे तो उस सफर का अपना मज़ा है। जग-डंडी देखोगे न पग-डंडी। साध के सवारी करोगे तो समकालीन राजपथ पर कालीन-सम सुविधाएं बिछ जाएंगी। इस तरह भी कह सकते हैं कि ज़िंदगी ज्ञान के सहारे चलेगी तो सुरम्य घाट बनाएगी, नहीं तो अपनी ही भाव-धारा से बारह-बाट कर देगी।
--भारत में भाव-धारा बलवती चौं ऐ?
--क्योंकि अंकुश बहुत ज़्यादा है। भावनाएं जहां निर्द्वंद्व होती हैं, जहां सब कुछ अभिव्यक्त करने की आज़ादी होती है, वहां दिमाग को अतिरिक्त श्रम करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। हमारा समाज भावना-प्रवण होते हुए भी इतना भावना विरोधी है कि व्यक्ति को अन्दर ही अन्दर ज्वालामुखी बना देता है। ज्वालाएं खुलकर नहीं नाच पातीं, गुपचुप गेयता बढ़ती जाती है।
--गुपचुप गाऔ, का परेसानी ऐ?।
--चचा, गेयता का मतलब समझे नहीं। संबंधों में गेयता।
--पहेली मत बुझा, साफ बता?
--पुरुष जब पुरुष से संबंध बनाता है तब उसे गेयता कहते हैं। नारी जब नारी से संबंध बनाती है, उसे लेस्बिता कहते हैं। जानकारी में तो तुम्हारी सब कुछ है चचा। तुम से भला कौन सा अनुभव बचा। हमारे देश में गे अथवा गेय अथवा गेयता के अपार सिलसिले हैं। संबंध गुपचुप गेय हैं। अनेक देशों में कानूनी मान्यता मिल गई। ‘दुर्लभं मानुषं देही’ जिसका जो हो जाए सनेही। पर अपना समाज नहीं मानता। किसी व्यक्ति को कुंवारे रहने का तो कानूनी अधिकार है पर गेयता का नहीं।
--अरे मैं समझ गयौ, जे सब तौ बचपन की कौतुक क्रीड़ा ऐं। सरीर की आंधी और बवंडर के कारन पैदा होयं और समय रहते चली जायौ करें। जामें भावुकता कौ कोई मसला नांऐं।
--ये तुम कैसे कह सकते हो चचा। भावना का क्या है, पता नहीं कब किससे जुड़ जाए। प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी। चंदन जहां घिसो वही सुगंध। इज़राइल से दो गेय माता-पिता योनातन और उमर घेर मुम्बई आए हुए हैं। ये तय करना मुश्किल है कि कौन माता, कौन पिता? दोनों माता, दोनों पिता! ये दोहरा लाभ है गेयता में। वे भारतीय कानून की धारा 377 का मज़ाक बनाते हैं जो समलैंगिकता को अपराध बताती है। लेकिन प्रसन्न हैं कि किराए कि कोख आसानी से उपलब्ध हैं। बान्द्रा में मिल गई किराए की कोख। पा गए बच्चा! सुख का कारोबार सच्चा। अख़बार में जो फोटो छपा है उसे देख कर कोई कह नहीं सकता उनसे अधिक सुखी कोई होगा। असल चीज़ है जीवन का आनंद, जो बिना किसी को नुकसान पहुंचाए मिलता रहे।
जिन्हें गेयता रास नहीं आती वो रासा तो न करें। परसों एक नामी-गिरामी व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली। भावना की मार थी या जीवन में भाव ना मिला, पंखे से लटक गए। कितने ही युगल सामाजिक बंधनों के कारण आत्मघाती हो जाते हैं। ऐसे लटकने से गेयता भली। ज़िंदगी तो बची।
--चम्पू! तेरी बात नईं पची।

Sunday, November 16, 2008

न तो लूलू है न हवाई बातें करता है

--चौं रे चम्पू! तोऐ ओबामा के बारे में कछू पतौ ऐ कै नांय?
--चचा, सरसरी तौर पर अख़बार पढ़ने वालों को जितना पता होता है उतना तो मुझे भी पता है।
--तौ बता ख़ास-खास बात!
--चचा, होनूलूलू में पैदा हुआ, इसका मतलब ये नहीं है कि वह कोई लूलू है। होनूलूलू है हवाई में। इसका मतलब यह भी नहीं है कि वो सिर्फ हवाई बातें करता है। ख़ानदानी विरासत लेकर ऊपर से नहीं उतरा है वो, नीचे से उगा है। माली-रक्षित क्यारी में नहीं उगा, ख़राब माली हालात की दुनियादारी में उगा है। अंकुर की तरह धरती फोड़ते ही निकल कर उसने भदमैला आसमान देखा है और आसपास की श्वेत-अश्वेत परस्पर विरोधी हवाओं को झेला है। उसे अंदर की ताकतों ने मज़बूत बनाया है। वो छियालीस साल का बूढ़ा बच्चा है चचा, बूढ़ा बच्चा।



--चौं! बूढ़ौ बच्चा कैसै है गयौ रे?
--देखिए! माता-पिता के विवाह-संबंध के छ: महीने बाद ही धरती पर आ गया। संबंधों की मजबूरी और मजबूरी के संबंधों के बारे में अभिमन्यु की तरह गर्भ में ही सब कुछ जान गया। पिता केनियाई श्यामवर्णी, माता अमरीकन गौरांग, दोनों में ज़्यादा निभी नहीं। न निभ पाने का कारण रंग भेद था कि ढंग भेद था, क्या पता, पर अंतरंग जलतरंग ज़्यादा नहीं बजा। पिता के प्यार से विहीन, मां के दामन से लिपटा, सौतेले पिता और नाना-नानी के साए में पला। बचपन में ही बहुत कुछ देख लिया उसने। गोरों से नफ़रत नहीं की लेकिन धरती मां के काले लालों के कसालों को क़रीब से देखा उसने। उसकी जीत पर अमरीका के काले लोगों को आंसू बहाते देखा आपने? खुशी के आंसू थे।
--वोऊ तौ रोय रई हती... का नाम ऐ वाकौ... ओफरा बिन फ्री!
--क्या कहने हैं चचा। अबोध होने का ढोंग करते हो और जानते सब कुछ हो। ओफ्रा विन फ्री को भी जानते हो! वाह। उसके आंसू तो आपके कलेजे में अभी तक रिस रहे होंगे?
--आगे बोल!
--आगे क्या बताऊं चचा! जीवन में घिस्से बहुत खाए उसने। मां ने दूसरा ब्याह कर लिया और दूसरे ब्याह के बाद इंडोनेशिया में बस गई। तो एक तरफ ओबामा ने पहली दुनिया यानी अमरीका का सुपर वैभव देखा तो दूसरी तरफ तीसरी दुनिया के इंडोनेशिया की चतुर्थ श्रेणी की गरीबी में गुज़र करती ज़िंदगी के कुचले रंग भी देखे। अंधेरी निम्न कक्षाओं में मानवीय संबंधों का विस्तार भी देखा और अति विलास का मस्तिष्क-शून्य होना भी देखा। बच्चा माता और पिता की संयुक्त कृति होता है। मां-बाप भले ही अलग हो जाएं, एक दूसरे के लिए मर चुके हों, लेकिन बच्चे के अन्दर न तो बाप मरता है, न मां। अब वो पहली दुनिया का पहला नागरिक होने जा रहा है। अमरीका का चौवालीसवां राष्ट्रपति।
--मैक्कैन की तौ नानी मर गई होयगी। इत्ते बोटन ते जीतौ।
--मैक्कैन को छोड़ो चचा, तुम्हें मालूम है कि ओबामा की नानी अपना वोट डाल कर इलैक्शन के रिज़ल्ट आने से एक दिन पहले ही मर गई। जीत की आहट पाकर खुशी से चली गई होगी। ओबामा को याद आई होंगी नानी की कहानियां। कहानियां अन्याय की, भुखमरी की, प्रवंचना की, गरीबी की, विडम्बनाओं की। जिनके कारण इस बूढ़े बच्चे ने तय किया होगा कि लड़ेगा। लड़ेगा लड़ाई के खिलाफ। बुश से उसका विरोध इस बात को लेकर था कि ईराक के युद्ध के दौरान पैदा हुए अमानवीय हालात को रोका जाए। वो इंसानों की सोशल सीक्योरिटी की बात करता है। विश्व भर के स्वास्थ्य की चिंता करता है। कहता है— ‘हम न लिबरल अमरीका में रहते हैं न कंज़र्वेटिव अमरीका में रहते हैं, हम युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमरीका में रहते हैं। हम युनाइटेड हैं’। ठीक बात है। लिबरल कहलाना भी ढोंग है। बहुत उदारता दिखाने वाले लोग सिंहासन पर बैठकर कृपाएं लुटाया करते हैं। युनाइटेड हैं तो भेदभाव गैरज़रूरी है। चचा! ओबामा को इलैक्शन के लिए जनता ने दिल खोल कर चंदा दिया। सौ पचास डॉलर देने वालों की तादाद ज़्यादा थी। उन्होंने पैसा दिया जिनके बीच उसने काम किया। वो डी.सी.पी. यानी डवलपिंग कम्यूनिटीज़ प्रोजैक्ट का डायरैक्टर था। उसने अल्पसंख्यकों के लिए आवाज़ उठाने से पहले कानून की पढ़ाई की। उनके बारे में किताबें लिखीं। कई साल तक युनिवर्सिटी में लैक्चरर बन कर कानून पढ़ाता रहा।
--पइसा तौ कम ना ऐ वाऊ पै।
--माना कि उसके पास भी मिलियनों में पैसा है, पर उसे किताबों की रॉयल्टी से मिला है। भारत में कभी ऐसा हो सकता है? एक फटीचर आदमी, जिसने कानून की पढ़ाई की हो, लैक्चरर बन जाए, फिर सीनियर लैक्चरर.... और किताबें लिखे, और जी राष्ट्रपति बन जाय।
--तू ऊ तौ प्रोफेसर रह चुकौ ऐ। तो ऊ ऐ तौ रॉयल्टी मिलै किताबन की?
--उससे तो चचा कॉलोनी का इलैक्शन भी नहीं लड़ा जा सकता। पता नहीं भारत में ऐसे दिन कब आएंगे जब हमारी वोटर जनता राजनीति के सारे खोटरों को रिजैक्ट करके अपने सही शुभचिंतकों को उनकी कोटरों से निकाल कर लाएगी।

Thursday, October 16, 2008

कौए कम हुए पर कांय-कांय बढ़ी

--चौं रे चम्पू! कउआ नाएं दीखें आजकल्ल, कहां गए सारे कौआ? सराधन में बिकट समस्या है गई। कौआ ग्रास खावै तबइ तौ पित्र-पक्स कूं पहुंचै। जे का भयौ?
--चचा! कौए कम होते जा रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं। आदमी की उम्र और आबादी दोनों बढ़ रही हैं। उसका आचरण बदल रहा है, इसलिए कौए कम हो रहे हैं। आप तो जानते है कि कौआ यमदूत भी होता है। यमराज को लगा होगा कि काम कम है और स्टाफ ज़्यादा है, सो उन्होंने सोचा होगा पहले इन्हें ही निपटाओ। कौए शायद यमराज से सैलेरी बढ़ाने की भी मांग भी कर रहे होंगे। कुछ कौए हो सकता है आमरण अनशन में जाते रहे हों।
पहले बच्चे खुले आंगन में बैठ कर रोटी खाते थे तो कागराज छीन कर ले जाते थे। बच्चा रोता था, मां मुस्काती थी। कौए को प्यार से डपटते हुए बच्चे को दूसरी रोटी लाकर देती थी। कौए का पेट भर चुका होता था इसलिए धन्यवाद की मुद्रा में बड़े प्यार से अपनी इकलौती आंख से बच्चे को निहारता था। बच्चे की भी कौए से दोस्ती हो चुकी होती थी। मुस्काता हुआ बच्चा जब अपनी दूसरी रोटी कौए की तरफ बढ़ाता था तब मां खिलखिलाती हुई बच्चे को गोदी में लेकर अपनी मढ़ैया में आ जाती थी।
--निर्धन जी कौ गीत याद ऐ का?
--हां चचा! ‘हम हैं रहबैया भैया गांव के, फूस की मढ़ैया भैया बरगद की छांव के, कागा की कांव के, हम हैं रहबैया भैया गांव के’। क्या ही मस्ती से गाते थे। कौआ किसी मुंडेर पर आकर बैठ जाए तो खुशी होती थी कि आज कोई मेहमान आएगा। अनचाहे मेहमानों से डर भी लगता था। मेरा भी एक कवित्त सुन लो चचा!

--सुना, सुना! तू ऊ सुनाय लै।
--घरवाली को ज़मीन की कुड़की के लिए अमीन की आने का अंदेशा है। अपने घर वाले से कहती है--

कुरकी जमीन की, जे घुरकी अमीन की तौ
सालै सारी रात, दिन चैन नांय परिहै।
सुनियों जी आज पर धैधका सौ खाय,
हाय हिय ये हमारौ नैंकु धीर नांय धरिहै।
बार-बार द्वार पै निगाह जाय अकुलाय,
देहरी पै आज वोई पापी पांय धरिहै।
मानौ मत मानौ, मन मानैं नांय मेरौ, हाय
धौंताएं ते कारौ कौआ कांय-कांय करिहै।

--चचा कौआ हंसाता था, रुलाता था, खुश करता था या डराता था, लेकिन आता था। कौए को दिवाकर भी कहते हैं क्योंकि मनुष्यों को जगाने की ज़िम्मेदारी मुर्ग़े के साथ आधी उसकी भी थी। इस चंडाल पक्षी को चिरायु भी कहते हैं पर ये नाम तो अब गलत हो गया। यमदूत, आत्मघोष, कर्कट, काक, कोको, टर्रू, बलिपुष्ट, शक्रज, के अलावा अरिष्ट भी कहते हैं इसको। दवाइयों में इसका उपयोग कैसे होता था यह तो बाबा रामदेव जानें पर एक दवाई सुनी होगी आपने अशोकारिष्ट। अरिष्ट लगने से न जाने कितनी आयुर्वेद की दवाइयां बनी हैं। पर अरिष्ट के साथ ऐसा अनिष्ट हुआ कि चिरायु की आयु ही कम हो गई चचा।
--चौं भई?
--भूख और कुपोषण चचा। प्यासा कौआ घड़े में कंकड़ डाल तो सकता है पर भूख लगने पर कंकड़ खा तो नहीं सकता। अब आलम ये है कि जो इंसान बेहद ग़रीब है वो रोटी के टुकड़े को तब तक कलेजे से लगा कर रखता है जब तक वह उसके कलेजे के टुकड़े के मुंह में न चला जाए। जिसके पास ज़रा सा भी पैसा आ गया वो बड़ी फास्ट गति से फास्ट फूड खाता है। कौए टापते रह जाते हैं। सड़े फास्ट-फूड का विषैला कचरा खाकर मर जाते होंगे। खेतों में भी बुरा हाल है। इस प्रकृति-प्रदत्त कीटनाशक को मलभुक भी कहा जाता है, किसानों की सहायता करता था, लेकिन यह प्रजाति तेज़ी से लुप्त हो रही है। खेतों में पड़ने वाले रासायनिक कीटनाशकों के कारण यह प्राकृतिक कीटनाशक समाप्त हो रहे हैं।
अपना जन्म बुलन्दशहर संभाग के खुर्जा शहर में हुआ था। नरेश चन्द्र अग्रवाल की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि बुलन्दशहर ज़िले में सन दो हज़ार तीन में कौओं की तादाद दस हज़ार थी, अगस्त दो हज़ार आठ की गणना के अनुसार अब सिर्फ दो हज़ार चार सौ उनासी कौए बाकी रह गए हैं।
--ऐसी परफैक्ट गिनती कैसै कल्लई?



--चचा! जब यमलोक में मनुष्यों की गणना परफैक्ट है तो मनुष्य भी तो यमदूतों की ठीक-ठीक गणना रख सकता है। मुझे तो लगता है कि यमलोक के इन कांइयां कर्मचारियों ने फाइलों में हेराफेरी करके अपना पुनर्जन्म मनुष्य लोक में निर्धारित करा लिया। इसलिए धरती पर कौए तो कम हो गए पर कांय-कांय बढ़ती जा रही है।

Wednesday, October 08, 2008

पुतलों के बारे में पुतलियों में पीड़ा

--चौं रे चम्पू! त्यौहारन पै आजकल्ल बजार हाबी हैं रए ऐं। तेरौ का बिचार ऐ?
--चचा! बाज़ार हावी तो हो ही रहे हैं, हॉबी भी बनते जा रहे हैं। भूमंडलीकरण के बाद बाज़ार का चरित्र तेज़ी से बदल रहा है, जिसका आधा चेहरा गोरा और आधा काला है। अपने त्यौहारों के सामान पहले हम ख़ुद बनाते थे या हमारे कारीगर भाई बनाते थे। मिट्टी के दीए, बांस की खपच्चियों की कन्दील, ईद की टोपियां, खानपान की चीज़ें, मिठाइयां, सेवइयां, खील-बसाते। अब हालांकि बाज़ार ने फास्ट-फूड के तासे बजाना शुरू कर दिया है फिर भी त्यौहार का ऊपरी स्वरूप देखने में पारंपरिक सा ही है। मिट्टी के लक्ष्मी-गणेश की जगह चीन से फाइबर की मूर्तियां बनकर आने लगीं। सस्ती की सस्ती, देखने में और सुन्दर। मिट्टी के दीवलों की जगह बिजली के दीए और झालरें भी चीन से बहुत सस्ती आती हैं।
--तो जा में नुकसान का ऐ?
--दो नुकसान हैं चचा। एक तो मिट्टी के दीवलों को धोने से और घी-तेल के होने से जो महक आती थी, वो ख़त्म हो गई और दूसरे,

त्यौहारों पर हमारे कारीगरों के चेहरों पर जो चमक-चहक आती थी वो जाती रही। ग्लोबलाइज़ेशन की काली ताकतों ने ग्राहकों का चेहरा तो क्रीम लगा कर गोरा कर दिया है पर आपसी तालमेल की भावना का निचोरा कर दिया है। अभी कुछ चीज़ें हैं जो बदली नहीं है। मुझे डर है, कहीं वो भी बदल न जाएं।
--जैसे कौन सी चीज़?
--जैसे रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतले। क्या किसी ने इस बात पर ध्यान दिया कि सदियों से मुस्लिम कारीगर रामलीला के पुतले बनाते आ रहे हैं। पुतले बनाने में समूचा परिवार लग जाता है और हर बरस पहले से ऊंचा रावण बनाते हैं। मैं दिन में रामलीला ग्राउंड गया था, विराट पुतले मैदान में लेटे हुए थे।



रावण का गुफा जैसा पेट। उसमें शौकत मियां के परिवार के बच्चे प्लास्टिक की सुतलियों से बांस की खपच्चियां कस रहे थे। लेई, अबरक़-पन्नी की जगह फेविकोल और पॉलिथिन शीट दिख रही थीं, पर कारीगरों के हाथ वही थे। सलमे-सितारे ज़रूर अब प्लास्टिक के थे पर शौकत साहब की सलमा और कुनबे के सितारे वही थे। पिछली बार जब मैंने इन बच्चों देखा था तो छोटे-छोटे थे। अब शौकत मियां की आंखों के तारे बड़े हो चुके हैं। काम तो कर रहे हैं, लेकिन सहमे-सहमे नज़र आते हैं।
--हां! धमाके दसहरा ते पहलै ई है गए ना!
--लेकिन उन धमाकों से शौकत मियां के कुनबे को तो नहीं दहलना चाहिए न! मुझे याद है उनकी सलमा रावण के कुण्डल को पालना समझ कर अपने सबसे छोटे बेटे अय्यूब को सुला दिया करती थी और बीच-बीच में झुला दिया करती थी। वो अय्यूब अब बड़ा हो गया है और अब्बा से कहता है कि देख लेना अब्बू अब ये लोग हमें आगे से बुलाना बन्द कर देंगे। शौकत मियां पुतलियां चौड़ा कर कहते हैं, कैसे बन्द कर देंगे? है किसी के पास ऐसा हुनर जो इतने ऊंचे पुतले बना दे। अय्यूब चुप हो जाता है। पहले मैं देखता था कि शौकत मियां के बच्चे कभी कुंभकर्ण के तो कभी मेघनाद के पेट में धमाचौकड़ी मचाते थे। अब सहमे-सहमे सुतलियां बांधते हैं और कनखियों से आते-जातों को निहारते हैं। कई बरस पहले मैंने शौकत मियां से एक सवाल किया था कि जब आपके बनाए हुए पुतले जलते हैं तो आपको कैसा लगता है? वे बोले-- हां हम पुतले बनाने में लगाते हैं पूरा महीना, बहाते हैं दिन-रात पसीना। नहाते हैं न धोते हैं, बहुत ही कम सोते हैं। एक महीने की मेहनत जब कुछ ही पलों में जल जाती है फक्क से, तो जी रह जाता है धक्क से। लेकिन जब सुनते हैं बच्चों की तालियां और देखते हैं उनके गालों पर लालियां, उनके चेहरों पर खुशियां और मुस्कान, तो मिट जाती है सारी थकान। फिर हम भी लुत्फ़ उठाते हैं और अपने हुनर को जलता देखकर तालियां बजाते हैं। लेकिन पता नहीं दिलों में दूरियां बढ़ाने वाले हैवानियत के रावण कुंभकर्ण और मेघनाद कब जलेंगे?
--बहुत सही बात कही सौकत मियां नै।
--चचा, बाज़ार के ख़तरे को शौकत मियां नहीं अय्यूब समझता है। वो जानता है कि आने वाले वर्षों में चीन से छोटे-छोटे कंटेनरों में बन्द फाइबर के बने ऐसे पुतले आ जाएंगे, जिनमें मशीन हवा भरेगी और देखते ही देखते वो मॉल जितनी ऊंचे हो जाएंगे। ....यही ग्लोबलाइज़ेशन का काला चेहरा है चचा, जिसकी वजह से स्वदेशी पुतलियों में पीड़ा है।

Wednesday, October 01, 2008

फन न फैलाएं फ़न दिखाएं

--चौं रे चम्पू! साम्प्रदाइकता और आतंकबाद में का अंतर और का संबंध? प्रस्न पै प्रकास डाल।
--ये भी कह दो समय तीन घंटे और अंक सौ। चचा, मुझे सही जवाब देकर ज़्यादा नम्बर नहीं लाने। लेकिन आपके सवाल का जवाब अब मात्र तीन घंटे में नहीं दिया जा सकता। हर आदमी के मन में अलग-अलग रूपों में डर समाया होता है। डर ही डराता है। विषहीन और दंतहीन सांप भी जब सामने कोई ख़तरा देखता है तो फन फैला लेता है कि सामने वाला डर जाएगा।
--अंधेरे में रस्सी ऊ सांप दीखै।
--ये आपने सांप के दूसरी तरफ खड़े जीवधारी, या कहें आदमी का वर्णन किया। सांप डर के मारे आक्रामक मुद्रा बनाता है और जीवधारी अंधकार के कारण रस्सी को सांप समझता है। अंधेरा, रस्सी, सांप, दूसरा जीवधारी, भय और आक्रामकता। पहले लो अंधेरा। अंधेरा कोई महत्व नहीं रखता अगर दिमाग में उजाला हो। हम अंधेरे में भी हालात की नब्ज़ टटोल सकते हैं। लेकिन अँधेरा अगर अविश्वास से पैदा हुए विश्वासों से घिर जाए तो अन्धविश्वास बन जाता है। अन्धविश्वास से पैदा होता है भय। भय भविष्य का, निकट भविष्य का, सन्निकट भविष्य का, सुदूर भविष्य का और दूरातिदूर भविष्य का, यानी नरक का जहन्नुम का हैल का। और ये सारा खेल है मन के मैल का।
--तू तौ बातन्नै उलझावै ऐ रे लल्ला।
--चलो! फिर से समझाता हूं। आदिम युग का आदमी समूह में खुश रहता था। सब मिल-बांट कर खाते थे। आहार की छीना-झपटी के बाद किसी कपटी ने इस चपटी दुनिया को धर्म का विचार लाकर और पिचका दिया। डरो! क़ानून से, जेल से, दण्ड से, ईश्वर से, नरक से लेकिन धरती को स्वर्ग भी बनाया उसी आदमी ने और सबसे बड़ी चीज़ बनाई आदमियत, इंसानियत।
--प्रवचन तौ दै मती, जो बात पूछी काई वो बता।
--चचा, तुम चलती गाड़ी में बहुत ज़ोर का ब्रेक मारते हो। आदमी के समूहों का बनना और समूहों से सम्प्रदाय बनना कोई बुरी बात नहीं थी। सम्प्रदाय से आदमी की पहचान बनती थी। उसका रहन-सहन, उसका तौर-तरीका क्या है, उसकी तालीम, उसके आध्यात्मिक विचार क्या हैं और कैसे हैं। कोई भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं था जो इंसानियत की भावना से लबरेज़ न रहा हो। साम्प्रदायिकता का कारण होता है रस्सी में सांप का भय। दूसरे सम्प्रदायों की रस्सियां भी सांप नज़र आती हैं और ख़ामख़ां वह सम्प्रदाय विष फेंकने और दांत मारने की इच्छा न रखने के बावजूद फन फैला लेता है। किसी सम्प्रदाय का डर कर फन फैला लेना साम्प्रदायिकता बन जाता है। आज स्वर्ग जैसे इस देश में नरक और जहन्नुम का नज़ारा आतंकवाद के कारण हो गया है।
--वोई तौ मैं पूछ रयौ ऊं कै आतंकबाद कहां ते आयौ?
--चचा सुनो तो सही। जब अलग-अलग साम्प्रदायिकताएं आमने-सामने अन्धविश्वासजनित डर के कारण फन फैला लेती हैं तो दोनों तरफ के अण्डों से निकले हुए संपोले समझते हैं कि हमारे मम्मी-डैडी ने फन फैलाए हैं, ज़रूर इन पर कोई संकट है। चलो सामने वाले को काट के आते हैं। अब ये छोटे-छोटे से सांप, इतने छोटे कि घास में भी न दिखाई दें, एक दूसरे की ओर जाते हैं और विष-विस्फोट करके चले आते हैं। सांप हैरान! हमने तो सिर्फ फन फैलाया था। ये विष-विस्फोट कैसे हुआ?


चचा आतंकवाद साम्प्रदायिकता का मानसिक विकलांग बच्चा है। इसलिए होना ये चाहिए कि हर सम्प्रदाय ये सोचे कि क्या फन फैलाने से पहले अकारण उत्पन्न भय को रोका नहीं जा सकता। फन फैलाने की जगह कुछ ऐसा फ़न आना चाहिए आदमी के पास कि वो भय की जगह एक आत्मीयता का संसार रचे। परमाणु करार होने को है। शांति उसका मकसद बताया जा रहा है। ताक़त आदमी को आदमी के निकट लाए उसे आदिम और बर्बर न बनाए। कल गांधी जयंती है चचा, गांधी जी ने सी. एफ. एंड्र्यूज़ को बाईस अगस्त उन्नीस सौ उन्नीस को भेजे गए अपने एक पत्र में लिखा था— ‘पाशविक बल जिसके पास जितना अधिक होता है, वह उतना ही अधिक कायर बन जाता है’। सो चचा आतंकवाद है सबसे बड़ी कायरता और रास्ता वही ठीक है जो गांधी ने दिखाया था। राजघाट पर तो इन दिनों ज़्यादातर पापी लोग फूल चढ़ाते हैं। अपन कल मन के राजघाट पर गांधी को पुनर्जीवित करेंगे।
--कल्ल चौं करै, आजई कल्लै रे।

Wednesday, September 24, 2008

मुहब्बत के सीमेंट की सड़क

--चौं रे चम्पू! जे तेरे हाथ में कागज कैसे ऐं रे? कोई कबता लिख मारी का?
--चचा! इंश्योरैंस के काग़ज़ हैं। कल एक बच्चा मेरी गाड़ी का शीशा फोड़ गया। पार्किंग में खड़ी थी। बड़ी गाड़ी है। शीशा भी कई हज़ार का आएगा। अब ठीक तो करानी पड़ेगी।
--किरकिट खेल रए हुंगे।
--नहीं चचा! मोटा पत्थर मारा। पिछला तो चकनाचूर हुआ, अगला भी दरक गया। दो सौ चौदह वालों का बिगड़ैल बच्चा है।
--तोय कैसै मालुम कै वाई नै तोड़ौ ओ, तेरे सामनै तोड़ौ का?
--प्रैस वाली ने इस शर्त पर बताया कि मैं उसका नाम नहीं लूंगा। बच्चे की मां उसे धमका गई थी, ख़बरदार जो तूने उनको बताया कि हमारे बच्चे ने तोड़ा है। अब मेरी मुसीबत देखिए। अगर मैं इंश्योरैंस वालों को बताता हूं कि खड़ी गाड़ी में बच्चे ने पत्थर मार दिया तो वो पैसे देने से रहे। जानबूझ कर तोड़ा गया शीशा, वो क्लेम क्यों मानेंगे? झूठ बोलना पड़ेगा कि ऐक्सीडेण्ट हुआ। दो सौ चौदह नंबर में जाता हूं तो वे भी क्यों मानेंगे और मान गए तो क्या दे देंगे। धोबन की भी ख़ैर नहीं। उसकी मेज़ फेंक दी जाएगी, टंडीला उखाड़ दिया जाएगा। बड़ा धर्म-संकट है चचा।
--आगै बोल, चुप्प चौं है गयौ? धरम ते ई तौ संकट आंमैं। तोय जे नायं पतौ!
--क्या बात कह दी चचा! मैं भी सोच रहा था कि बच्चे जब गड़बड़ कर देते हैं तो जिस तरह मां-बाप उनकी रक्षा में सामने आ जाते हैं उसी तरह आतंकवादी बन चुके बच्चों की रक्षा में समुदाय के कुछ लोग आ जाते हैं। हमारे बच्चे ऐसा नहीं कर सकते। अरे, मान जाओ भैया कि उसने किया है। तुम्हारे सारे बच्चे ऐसे नहीं हैं। तुम भी ऐसे नहीं हो। कोई एक बच्चा है ख़ुराफ़ाती, तो उसे बचाने की कोशिश मत करो। उसे अगर दंड नहीं मिलेगा तो वह और शीशे तोड़ेगा। पहले मुझे क्लेम मिल जाए चचा, फिर जाऊंगा दो सौ चौदह वालों के पास।
--अब तू अपनी गाड़ी की बातन्नै छोड़, वोई बात बता जो बताय रह्यौ का ओ। वा बात में दम ऐ।
--चचा जामिआ मिल्लिआ एक ऐसी संस्था है जिसका जन्म सन उन्नीस सौ बीस में असहयोग और ख़िलाफ़त आन्दोलन के दौरान गांधी जी की प्रेरणा से अलीगढ़ में टैंटों में हुआ था। बाद में दिल्ली के करोलबाग़ इलाके में 13, बीडनपुरा की एक पक्की इमारत में आ गई। सन उन्नीस सौ इकत्तीस में ओखला में इसकी संगे-बुनियाद अब्दुल अजीज़ नाम के एक बच्चे के हाथों रखवाई गई। और चचा आपको हैरानी होगी कि आज जो सड़क मथुरा रोड से ओखला और बटला हाउस तक जाती है वह छोटे-छोटे बच्चों के श्रमदान से बनी है।
क्या ही जज़्बा रहा होगा, हमारा मुल्क है, हमारा इदारा है। तालीमी मेला लगता था। हिन्दोस्तान पर प्रोजेक्ट दिए जाते थे। अली बंधुओं की मां इस बात पर गर्व करती थीं कि उनके बेटे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ मुहिम में जेल चले गए। जामिआ में एक ख़िलाफ़त बैंड था, जो अंग्रेज़ों के विरुद्ध तराने गाता-बजाता था। जामिआ का तराना मुहब्बत की बात करता है। जामिआ में जितने भी रहनुमा हुए उन्होंने प्रेम और मुहब्बत का पाठ पढ़ाया और जामिआ के बारे में ये कहा कि पूरे भारत में यह एकमात्र संस्थान है जहां हर मज़हब का आदर करना सिखाया जाता है। इंसान-दोस्ती और वतन-परस्ती सिखाई जाती है। तालीमी आज़ादी, वतन-दोस्ती, क़ौमी यक़जहती, सांस्कृतिक आदान-प्रदान,ज्ञान की विविधता, सादगी और किफ़ायत, समानता, उदारता, धर्मनिरपेक्षता, सहभागिता और प्रयोगधर्मिता यहां के जीवन-मूल्य हैं। वो बच्चे जिन्होंने सड़क बनाई, अब उनमें से कुछ सड़क किनारे बम रखने लगे। मुझे सुबह-सुबह जामिआ के एक उस्ताद मिले। बड़ी शर्मिन्दगी से कहने लगे— लोग हमसे सवाल करते हैं कि क्या आप बच्चों को यही सिखाते हैं। पूछने वालों को क्या जवाब दें? किसी के माथे पर तो कुछ लिखा नहीं होता। लेकिन ये जो नई नस्ल आई है, हिंदू हो या मुसलमान, इसमें कई तरह का कच्चापन है। जामिआ के सभी कुलपतियों ने विश्वविद्यालय के विकास को लगातार गति दी और इस मुकाम तक ला दिया कि इसकी एक अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी। तरह-तरह के सैंटर, नए-नए विभाग, बहुत तरक़्क़ी की जामिआ ने। और अब देखिए। बिगड़ैल बच्चों के कारण मां-बाप को भी शर्मिंदगी का सा सामना करना पड़ रहा है। यह जो अतीफ़ था, जो मारा गया, राजनीति विभाग में ह्यूमन राइट्स में एम.ए. कर रहा था। वो ह्यूमन राइट्स कितना समझ पाया? शायद उसके ज़ेहन में ह्यूमन की परिभाषा कुछ और ही रही होगी। इंसान-दोस्ती सिखाने वाले अध्यापक क्या करें कि बच्चे का कच्चा दिमाग़ इंसान-दुश्मनी तक न पंहुच पाए। जामिआ के उसूलों की कहानी देश के हर मज़हब के बच्चे को फिर से सुनानी चाहिए और उनसे एक ऐसी सड़क बनवानी चाहिए जो देशवासियों के दिलों तक पंहुचे, जिसपर मुहब्बत के सीमेंट की गाढ़ी और मोटी परत चढ़ी हो।
--हां, सनसनी फैलाइबे ते का होयगौ रे!

Saturday, September 20, 2008

झलकियां : "जयजयवंती वार्षिकोत्सव"

प्रिय और आदरणीय मित्रो,

इन दिनों समारोहों का सिलसिला अपनी निरंतरता में गतिमान है। इंडिया हैबिटेट सैंटर के स्टाइन सभागार में 11 सितंबर 2008 को सम्पन्न हुई "जयजयवंती वार्षिकोत्सव" में सुश्री पूर्णिमा वर्मन का सम्मान हुआ। उनके लैपटॉप को हिन्दी सॉफ्टवेयरों से सज्जित किया गया। इस अवसर पर स्नेहा चक्रधर ने अपनी गुरु पद्मश्री गीता चन्द्रन के निर्देशन में भरतनाट्यम की ऐसी प्रस्तुतियां दीं जिनमें हिन्दी रचनाओं का प्रयोग किया गया था। इस समारोह की झलकियां देखने की फुरसत आपके पास हो तो नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

http://www.flickr.com/photos/jaijaivanti/

ये चित्र और उन पर की गई टिप्पणियां पायल की हैं।
लवस्कार


Wednesday, September 17, 2008

सिरफिरे सिरों को फिर से पकड़ें

--चौं रे चम्पू! गृहमंत्री ने तीन बार कपड़ा चौं बदले रे?
--बाहर के तो बाहर के अन्दर के लोग भी कीचड़ उछालेंगे तो अगला दस बार बदलेगा। क्या परेशानी है!
--अब अगलौ सवाल, जे बता कै दिल्ली सचमुच दहली का?
--चचा दिल्ली नहीं दहली। दिल्ली अगले दिन से ही उन सारे स्थानों पर टहली, जहां-जहां धमाके हुए थे। हां, मीडिया द्वारा बहली। जन संचार माध्यमों ने दहशत से दहलाने की कोशिशों में दिल्ली ही नहीं पूरी दुनिया का दिल बहलाया। हज़ार लोग पानी में बह गए, उसे कैसे दिखाओगे, एक आदमी खून से लथपथ दिखा दो तो लोग टी.वी. से चिपके रहेंगे। अरे चचा, कितना बड़ा देश है ये! इसमें दस-बीस सिरफिरे होना मामूली बात है। उन सिरफिरों के कारण आप फिरसिरे हो जाएं, यानी फिर-फिर उसी सिरे को पकड़ कर हिंसा बढ़ा-चढ़ा कर दिखाएं, उचित है क्या? सिरफिरों को हर सिरे से जोड़ना, पिछली विपदाओं पीछा छोड़ना और अगली खुशियों से मुंह मोडना कोई अच्छी बात नहीं है।
--तू कहनौ का चाहै लल्ला?
--देखिए! बाढ़ की विभिषीका अभी ख़त्म नहीं हुई लेकिन पर्दे पर पर्दे के पीछे चली गई। यहां आ गए ख़ून के छींटे। माना कि कुछ निरपराध, निर्दोष और निरीह लोग मारे गए, सौ-दो सौ घायल हुए, लेकिन क्या कोई नया दुख पुराने दुख को इस तरह ढंक देता है? आतंक की घटना दिल्ली में चार स्थानों पर हुई, चलो उसे चार बार दिखा कर आगे की बात करो। ये क्या कि उसी एक खबर को दिन-रात का रोना बना लिया। बड़े खुश हो रहे होंगे चंद आतंकवादियों के विक्षिप्त दिमाग। रातों-रात हीरो बन गए। हत्यारा अपनी क्षमताओं पर ख़ुश होता है। उसके दिलो-दिमाग की गन्दगी और दरिन्दगी को हवा मिलती है। घटना के बाद काम पुलिस और प्रशासन पर छोड़ दिया जाना चाहिए। वे उन्हें ढ़ूंढ निकालें और सही प्रक्रिया से ठिकाने लगाएं। उन्हें कम्बख़्तों को पर-पीड़ा का सुख तो न लेने दें। उन्हें कच्ची खोपड़ियों का आदर्श तो न बनने दें। उन्हें किसी मज़हब का प्रतिनिधि मान लिए जाने की भूल तो न होने दें और तत्काल कोई निर्णय न निकालें। बारह साल के बच्चे के बारे में क्या-क्या अटकलें लगाई गईं— आर.डी.एक्स. उसकी छाती पर बंधा है, बम जैसी कोई चीज़ उसके पैर में बंधी है, उसकी जेबों में विस्फोटकों की पोटलियां हैं। आतंकवाद अब बच्चों के सहारे विस्फोट कर रहा है। सबका-सब झूठ चचा, बिना बात की सनसनी फैलाने का मूर्खतापूर्ण प्रयास।
--तौ का निकरौ?
--पता चला कि वह तो गुब्बारे बेचने वाला बच्चा था। उसने आतंकवादी को देखा था। कुछ कूड़ा बीनने वाले बच्चों ने भी सुराग दिए कि उन्होंने रीगल और इंडिया गेट पर भी आतंकवादियों को पोटलियां रखते हुए देखा है। पुलिस ने बम निष्क्रिय कर दिए। लेकिन क्या किसी मीडिया कर्मी ने एक बार भी यह सवाल उठाया कि हमारे देश का बारह साल का बच्चा क्यों गुब्बारे बेच रहा है। छोटे-छोटे बच्चे क्यों कूड़ा बीन रहे हैं। ये सवाल अगर उठाते तो बड़े-बड़े लोग आतंकवादी नज़र आते। ये नन्हे बच्चे अमीरी और गरीबी की लीलाएं सुबह-शाम देखते हैं। ये अपनी मेहनत से घर चलाते हैं, पूरे कुनबे का पेट पालते हैं। ज़िम्मेदार हैं और ज़्यादा समझदार हैं। इस बचकानी दुनिया में ये बूढ़े बच्चे हैं। इनके तजुर्बों ने हादसों को टाला है। इनको चाहिए शिक्षा-दीक्षा और दिलों को जोड़ने वाली भाषा का ज्ञान। मानवीय और आत्मीय सम्प्रेषण के अभाव में अगर कोई दरिन्दा इन्हें फुसला ले तो शायद सफल हो सकता है। दरिन्दों को करना सिर्फ़ ये होगा कि मज़हब की गलत-सलत व्याख्याएं करके इन्हें अमानवीय बना दें। सबको जोड़ने की ताकत रखने वाली भाषा के स्थान पर सिर्फ़ दरारें बढ़ाने वाली ज़बान सिखा दें।
--दिलन कूं जोरिबे वारी भासा कौन सी ऐ रे?
--हिन्दी चचा हिन्दी! उसे हिन्दुस्तानी कह लो। जिसे पूरा देश बोलता है। जिसमें हमारे देश की सारी भाषाओं के शब्द हैं। वो हिन्दी! तेरह को काण्ड हुआ, चौदह को हिन्दी दिवस था। हर अख़बार में दो-तीन पन्ने तो हिन्दी दिवस पर आते ही थे। आतंकवाद की ख़बरों के कारण हिन्दी की वह जगह भी छिन गई। मीडिया के मित्रो से गुज़ारिश है कि वो आफ़त को इतना बढ़ा-चढ़ा कर न दिखाएं कि शराफत माफी मांगने को मजबूर हो जाए। सिरफिरों को इतना सिर न चढ़ाएं। सत्य के मानवीय सिरों को फिर से पकड़ें।

Thursday, September 04, 2008

हिन्दी के आत्मघाती गुलदस्ते

--चौं रे चम्पू! जे तेरे थौबड़ा पै कित्ते बज रए ऐं रे? तेरी आंख तौ लगै हंस रई और दूसरी लगै कै रो रई ऐ, चक्कर का ऐ?

--चचा ठीक पहचाना! कुछ गड़बड़ तो है जिसे मैं भी समझ नहीं पा रहा। एक गूंज सी है मस्तिष्क में, जो दांए-बांए हो रही है। कभी-कभी कोई एक बात दिमाग में घुस जाती है, वो परेशान करती रहती है, कभी राह भी सुझाती है।

--पहेली मत बुझा, मूंजी! अपनी गूंज की पूंजी बाहर निकार

--चचा! हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दीको लेकर पिछले एक साल से मासिक गोष्ठियां चल रही हैं। बारहवीं गोष्ठी में जनाब अशोक वाजपेयी ने एक बात कही थी-- निराशा का भी एक कर्तव्य होता है। इस वाक्य के बाद उन्होंने जो बोला मुझे सुनाई नहीं दिया। सुई वहीं अटक गई। तब से मैं परेशान भी हूं और सुखी भी वाकई एक आँख हंस रही है, ए रो रही है।

--निराशा कौ कर्तव्य?

--हां चचा। निराशा कहां नहीं है, हिन्दी को लेकर, औरत के माथे की बिन्दी को लेकर, गरीब के कपड़ों की चिन्दी-चिन्दी को लेकर, निराशा कहां नहीं है? लेकिन निराशा का कर्तव्य होता है, ये कहकर चचा कमाल ही कर दिया। निराशा अगर तुम्हें घनघोर निराशा में छोड़ दे तो वो निराशा अपराधी है। लेकिन निराश नज़ारा अगर ज़रा सी आशा कि किरणों भी ले आए तो वह निराशा सकारात्मक हो जाती है। हिन्दी के मामले में विद्वानों को जब भी सुनो, हिन्दी के दरिद्र भविष्य का ख़ौफ़नाक नज़ारा पेश करते हैं। हमारे मित्र राहुल देव ही अकसर कहते हैं कि आने वाले बीस-पच्चीस वर्षों में हिन्दी दरिद्रों की, रिक्शे वालों की, नाइयों-धोबियों की, नौकर-चाकरों की बोली भर बनकर रह जाएगी, बाकी पूरा समाज अंग्रेज़ी बोलता नज़र आएगा। चचा, निराशा वाजिब लगती है पर इसमें भी आशा तो है ही कि हिन्दी रहेगी तो सही। रहेगी, उन लोगों के बीच जो भाषा के सही वाहक होते हैं। ले जाते हैं आगे। शास्त्रीय भाषाएं कब आगे बढ़ी है? लोक भाषाएं ही सदा आगे बढ़ती हैं। एक सेमिनार में कुछ लोगों को हिन्दी का गिलास आधा भरा दिखाई दिया, कुछ ने कहा आधा खाली है। इस पर राजकिशोर की टिप्पणी बड़ी मज़ेदार लगी, उन्होंने पूछा—‘गिलास कहां है’? हिन्दी का तो गिलास ही गायब है।

--बात भड़िया है!

--हंस रहे हो चचा! मुझे भी हंसी आई थी। फिर मेरी इधर वाली आँख हंसने लगी। उसे कम्प्यूटर-इंटरनेट के रूप में गिलास दिखाई दे गया। इंटरनेट ऐसा जादुई गिलास है जिसमें तुम चाहे जितना भरो, गिलास भरेगा नहीं और खाली भी नहीं होगा। भरे जाओ, भरे जाओ, ये तुम्हारे ऊपर है कि कितना भर सकते हो। जो भर रहे हैं उन्हें सैल्यूट करने का मन करता है। एक हैं दुबई में पूर्णिमा वर्मन इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से नेट पर हिन्दी साहित्य को अपलोड करने का काम कर रही हैं। हर दिन नए-नए कवि कविता-कोश में सम्मिलित होते जा रहे हैं। हिन्दी विकीपीडिया हर पल बढ़ रहा है। एक बार कोई साहित्यकार अपलोड हो जाए तो तब तक नहीं हट सकता जब तक वह स्वयं न कह दे कि मुझे वहां से हटा दिया जाए। अपने आप वो हटेंगे क्या? जो बढ़ गए हैं वो घटेंगे क्या?

--फिर हिन्दी कूं फिकर का बात की?

--हिन्दी के लिए अरण्य-रोदन करने वाले ही हिन्दी के शत्रु हैं। पर वे इतने बड़े-बड़े नाम हैं कि उन्हें शत्रु घोषित कर दिया जाए तो बात बनेगी नहीं। वे हर दिन सेमिनारों में अच्छी हिन्दी बोलकर हिन्दी के विकास का रोना रोते हैं। वो मंचों पर जाते हैं। हिन्दी में कविताएं सुनाते हैं। हिन्दी को जो लोग सरल करें उनके प्रति वे कठिन हो जाते हैं। वे पारिभाषिक कोशों के हस्ताक्षर हैं। वे सलाहकार समितियों के सिंहासन हैं। वे पॉलिटिक्स के पद्मासन हैं। वे आत्म-मुग्ध हैं। वे यात्राएं करते हैं। उनके वृक्ष का पत्ता-पत्ता भत्ता पाता है। वो किसी का भी पत्ता काट सकते हैं। हिन्दी उनसे कितनी धन्य या दुःखी है ये बताया नहीं जा सकता। वे हिन्दी के आत्मघाती गुलदस्ते हैं। हिन्दी पखवाड़ा आने वाला है। इनका जमावड़ा अब लगेगा। लेकिन मेरी निराशा का भी एक कर्तव्य है चचा, जिसे पूरा करने का मन है।

--अरे! अब तो तेरी दोनों आँख हंस रही हैं।

--थैंक्यू चचा।

Monday, August 25, 2008

लकड़ी का रावण नहीं रबड़ का गुड्डा


--चौं रे चम्पू! अब मुसर्रफ कौ होयगौ रे?
--चचा! वही होगा जो एक भिखारी के साथ होता है। भीख न मिलने पर पेट में घुटने दबाकर फुटपाथ पर सोता है। तानाशाह की परिणति या तो आरी से कटने में होती है या कद भिखारी तक घटने में होती है। ताज्जुब की बात तो ये है कि चुनाव के बाद इतने दिन तक टिका भी कैसे रहा। वजह ये थी कि फौजी वर्दी के अन्दर वो एक जम्हूरियत के बन्दर की तरह अपने गलफड़ों में रसद इकट्ठी करता रहा और कट्टरता और आंतकवाद से लड़ाई नाम की दो डालों पर जब मन आया फुदकता रहा। अमरीका के पैसे से आवाम को विकास का झूठा नज़ारा दिखाता रहा। जनता कंफ्यूज़ हो गई। कारगिल में घुसपैठ करके भारत विरोधी भावनाओं को तुष्ट किया और फिर पट्ठा आ गया भारत से हाथ मिलाने।
--अब होयगौ का वाके साथ, जे बता?
--कुछ ख़ास नहीं होगा चचा, होता उसके साथ है जिसके पास कुछ होता है। न आर्मी, न अमरीका, न अवाम, साथ छोड़ गए तमाम। नवाज़-ज़रदारी के सामने पद के भिखारी ने सौ नाटक किए। नवाज़-ज़रदारी गठबंधन इतिहास को दोहराना नहीं चाहता था कि लोग समझें कि पाकिस्तान में सिर्फ तख़्ता-पलट होता है या बदले की भावना से काम लिया जाता है। अब पाकिस्तान के नए हुक्मरानों की समझ में ग्लोबल-गणित आता है। चल थोड़े दिन बना रह भइया, तेरी चला-चली तो होनी है। भली तरह से मान जा वरना इतिहास को दोहराने में भी क्या देर लगती है। बेनज़ीर के जाने के बाद वे जम्हूरियत की नई नज़ीर लाना चाहते थे। सो कटोरे में दया का सिक्का नहीं पड़ा। अल्लाह का हवाला देकर कट्टरपंथी मौलानाओं की दाढ़ी के नीचे कटोरा रखा तो दो टूक जवाब मिला-- आगे बढ़ और लाल मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठ जा, वहां परवरदिगार का दीदार कर। भीख में भरोसे की एक भी दीनार नहीं दी मौलवियों ने। व्हाइट हाउस के दरवाज़े पे अल्लाह का नाम लिए बिना कटोरा फैलाया। तो अन्दर से बुश ने मुश से कह दिया-- आगे बढ़ भइया। लौटकर अपनी आर्मी के नए सिपहसालारों के आगे कटोरा फैलाया-- हुक्म मानने के वचन की भीख़ दोगे? आर्मी ने भी मुंडी हिला दी-- आगे बढ़, आगे बढ़। कटोरा घूमता-घूमता पहुंचा जुडीशरी के आगे। जज हज़रात पहले से ही बिर्र थे, एक स्वर में बोले— बर्र के छत्ते में कटोरा दे रहा है मवाली, जम्हूरियत में हो चुकी है हमारी बहाली। महाभियोग के हत्थे चढ़ गया, तो कटोरे का टोपा बना के फंदे पर चढ़ा देंगे। ये सुनहरे ख़्वाब देखने वाली सुनहरे फ्रेम की ऐनक उतार दे और गद्दी से अपने आप उतर जा। तुझे अब हुकूमत की भीख नहीं मिलने वाली, आगे बढ़। चचा, मुशर्रफ पूरा तानाशाह नहीं था। तानाशाह होता है बांस की खपच्चियों से बना लकड़ी का रावण, जो झुकता नहीं है, फुंकता है। ये तो रबड़ का गुड्डा था, जिसके साथ अमरीका ने मनोरंजन किया। पर इसने भी आतंकवादी ब्रश से बुश का ऐसा मंजन किया कि अमरीका के दांत काले हो गए। धरती के भोले-अनपढ़-निरीह मुसलमान उसके निवाले हो गए। इसने आतंकवाद को कोसा भी और पोसा भी।
--बडौ बेआबरू है कै निकरौ।
--बेआबरू होकर वह निकलता है, जिसकी कोई आबरू बची हो। पाकिस्तान के हर शहर में सड़कों पर मिठाई बंट रही है। ऐसा पाकिस्तान में पहले कभी नहीं हुआ। मुशर्रफ के ख़िलाफ़ गुस्सा है न रहम, क्योंकि बचा ही नहीं कोई दम। सुमरू मियां कार्यवाहक राष्ट्रपति बन चुके हैं और सुमरूतलैया के सामईन एक ही गाना सुनना चाहते हैं—‘जा जा जा रे जा मुशर्रफवा’। तुझे कोई नहीं मारेगा। फुटपाथ पर कोई नशेड़ी ड्राइवर तेरे ऊपर ट्रक चढ़ा दे उसकी कोई गारंटी नहीं।
--जैसे सबके दिन फिरे, वैसे मुसर्रफ के कबहुं न फिरैं।

Friday, August 08, 2008

जिज्ञासा, जज़्बा, जुनून और जीवनधारा

—चौं रे चम्पू! बिचार बड़ौ कै जीवन?
—ये भी कोई पूछने की बात है? जीवन हर हाल में बड़ा होता है चचा।
—अब बता, बिचारधारा बड़ी कै जीवनधारा?
—ये प्रश्न कठिन है! विचारधारा के लिए जिन लोगों ने जीवन दे दिए, वही महान कहलाए। बच्चा धरती पर आते ही जिज्ञासा की आंख खोलता है। जिज्ञासा विचार की जननी होती है। किशोर होते-होते जिज्ञासाएं एक नासमझ शोर में बदल जाती हैं। जवान होते-होते उस शोर में से कोई एक आवाज़ साफ सुनाई देने लगती है जो एक जज़्बा बन जाती है। फिर जज़्बाती जवानी अपनी और अपने आसपास की मुक्ति के लिए नव-जनित जुनून को अपनी जीवनधारा बनाने लगती है।
—तू तौ अपनी सुना!
—चचा अपन भी जब किशोर थे तब शाखा में जाते थे। ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे...’ गाते थे। देश-भक्ति हिलोरें मारती थी। लेकिन क्या हुआ कि एक दिन गुरू जी ने विचार-चिंतन के दौरान कहा-- इन म्लेच्छ मुसलमानों ने हमारी संस्कृति का सर्वनाश कर दिया है। बात भाई नहीं चचा। अरे, सन छप्पन में हमारा घर जब भूचाल में गिर पड़ा था, तब उसे फिर से बनाने वाले सारे राज-मिस्त्री मुसलमान थे। रामलीला में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले बनाने वाले सारे कारीगर मुसलमान थे। अपने क़स्बे में कलंगी-तुर्रा ख़याल-गायकी के अधिकांश लोग मुसलमान थे। बड़ा मीठा गाते थे। ननिहाल में मुझे पुस्तक-कला, काष्ठ-कला, चर्म-कला और गणित सिखाने वाले मास्साब मुसलमान थे। मैंने भगवा गुरू जी को रास्ते में आते-जाते प्रणाम करना तो नहीं छोड़ा पर शाखा का रास्ता छोड़ दिया चचा। जवानी की दहलीज पर खड़े जज़्बात दुनिया को बदलने के लिए कोई जुनून चाहने लगे। मथुरा में मिले कॉमरेड सव्यसाची, उन्होंने सुनाई वर्ग-संघर्ष की दास्तान। कुछ-कुछ समझ में आई, बाकी दिल्ली में कॉमरेड सुरजीत ने सुनाई। उनकी कक्षाओं के लिए विट्ठल भाई पटेल हाउस जाते थे। वे बताते थे कि धर्म एक छद्म-चेतना है, अफीम है। मान लिया। ......जवानी का दूसरा जुनून होता है प्रियतम की तलाश। विचार के साथ अनजाने ही जीवन-तलाश भी जारी थी। मिल गई हमें हमारी प्राण-प्रिया। उसे साथ लेकर जाने लगे कॉमरेड की कक्षाओं में। प्राण-प्रिया ने कक्षा से बाहर आकर कहा कि धर्म अगर छद्म है तो ये खुद दाढ़ी क्यों रखते हैं? पगड़ी क्यों पहनते हैं? अपनी तरह से मैंने समझाया कि परिधान संस्कृति है। धर्म और संस्कृति अलग-अलग चीज़ें हैं। पर प्राण-प्रिया नहीं मानी। अगली कक्षा में पूछ ही लिया। उन्होंने मुस्कुरा कर उसे अपना पारिवारिक विधान और परंपरागत परिधान बताया और कहा कि क्रांति के लिए परिवार का दिल तोड़ना ज़रूरी नहीं है। कॉमरेड की यह बात तर्कसंगत लगी। जुट गए क्रांति के लक्ष्य के लिए। फिर बहुत तरह से मोह-भंग हुए चचा। विचारधाराओं में लाइनें अलग-अलग थीं। उनकी रूस की लाइन, हमारी चीन की लाइन, कुछ नक्सल हो गए। चारू मजूमदार और कानू सान्याल के अनुसार सत्ता बन्दूक की नली से निकलती थी। हमारे कुछ कॉमरेड्स को प्राण-प्रिया के साथ हमारा अधिक समय बिताना रास नहीं आया। सो मामला पार्टी की सदस्यता तक नहीं जा सका। बचपन के गांधी-नेहरू यदा-कदा विचारों में अंगड़ाई लेने लगते थे, लेकिन उनके चेले प्रभावित नहीं कर पाए। तो, हर समय राजनीति की सांस लेने के बावजूद किसी दल के सदस्य नहीं बने।
—अच्छौ भयौ। इंसान कूं इंसान की तरियां देखिबे कौ सऊर तौ बच गयौ।
—अपने असल गुरू हैं मुक्तिबोध। बार-बार उनका ज़िक्र करता हूं। उन्होंने कहा था—‘तय करो किस ओर हो तुम, सुनहले ऊर्ध्व आसन के दबाते पक्ष में, या अंधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन? तय करो किस ओर हो तुम।‘ विचारधारा में कंफ्यूजन कम फ्यूजन ज़्यादा होने लगा। उलझन के साथ सुलझन। सोमनाथ चटर्जी चालीस साल पार्टी की सेवा करने के बाद सुनहले ऊर्ध्व आसन के दबाते पक्ष में बैठे हैं या वहां बैठ कर अंधेरी निम्न कक्षा का हित-चिंतन कर रहे हैं, सोचने की बात है। सुलझाते-सुलझाते सोल्झेनित्सिन हो जाओ। वो भी सुपुर्दे-ख़ाक हो गए, सुरजीत सुपुर्दे-राख हो गए, सोमनाथ पार्टी-विधान छोड़ कर संविधान की सुपुर्दे-साख हो चुके हैं। चचा, नतीजा ये निकला कि सब अच्छे हैं, सब बुरे हैं और विचारधारा से बड़ी होती है जीवनधारा।
—अब आयौ ऐ न लाइन पै!

Sunday, August 03, 2008

बम टिफ़िन में नहीं है



चौं रे चम्पू! का नतीजा निकरौ? अखबार देखे पिछले बीस दिना के?

हां चचा देखे। एक-एक पन्ना पलट कर देखा। एक-एक लाइन पढ़ कर देखी। क्रांतिशब्द ग़ायब हो गया अख़बारों से। बीस साल पहले तक हर पन्ने पर क्रांति होती थी। क्रांति एक सपना थी, एक विचारधारा थी। नौजवानों में, देश और विश्व समाज पर होते अत्याचारों के प्रति सात्विक समझदार क्रोध और दायित्व का बोध लाती थी क्रांति। अब टुइंया क़िस्म के आंदोलन होते हैं।

अंगरेजी के अखबार देखे?

वहां भी रिवौल्यूशन की जगह मूवमैंट शब्द आ गया। अब देखो चचा, रैवोल्यूशन का मतलब है रिवाल्व होना, घूमना। कोई एक चीज़ तुम्हारे आगे घूम-पलट कर बिल्कुल नए रूप में आई, दिपदिपाती हुई। और मूवमैंट है, जहां तुम हो, बस वहीं हिलते-हिलाते रहो। गोरखालैंड आंदोलन, डेरा राम रहीम आंदोलन, उत्तराखंड-झारखंड-नंदीग्राम आंदोलन, डॉक्टर-वकीलों के आंदोलन, गुर्जर आंदोलन, ऐसे आंदोलन दिखाई दे जाएंगे…… या ऐसे आतंकांदोलन जो दूसरों को बुरी तरह आंदोलित कर दें। बंगलूरू, अहमदाबाद के बाद सूरत की सूरत बिगाड़ने पर आमादा। दोस्तोव्स्की ने ‘अपराध और दंड’ उपन्यास की शुरुआत करने से पहले लिखा था कि समाज में अपराध बढ़ें तो समझो क्रांति आने वाली है। पर आएगी कहां से, जब तुम शब्द ही गायब कर दोगे? गद्दी पर लूटपाट के अनुभव ले के, राजघाट का रस्ता ले के, बैठ गए अपराधी। उनसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे ही इतने बड़े लोकतंत्र की रक्षा कर रहे हैं। डैमोक्रेसी चली ग्रीक से भारत में चल रही है ठीक से। हमारे रहनुमाओं के पास अपराधों के इतने अनुभव हैं कि हर बार लोकतंत्र की रक्षा में काम में आते हैं। लोकतंत्र के चार शेर हैं, चारों के चारों दिलेर हैं। आमजन को ये खा भी जाएं तो उन्हें खुश होना चाहिए कि वो महाशक्ति का हिस्सा बन गए और लोकतंत्र में कुर्बानी का क़िस्सा बन गए।

रूस में अपराधन के बाद क्रांति आई और क्रांति के बाद अपराध आय गए, आए कै नांय? अपराधन ते कैसै लड़ौगे भैया?

अपराध एक प्रकार का निजि हितसाधन है। प्राय: दो कारणों से सम्पन्न होता है, एक तो अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के नाम पर और दूसरे अपने सम्प्रदाय-समुदाय की उन्नति के नाम पर। आंदोलन अपराधों का मुखौटा बन जाते हैं। आतंकवाद एक सांप्रदायिक हितसाधन अपराध है और जातिवाद एक सामुदायिक हितसाधन अपराध है। ये आपराधिक आंदोलन भेदभाव की बुनियाद पर आदमी को आदमी से अलग करने का वाले हैं। क्रांति का विचार था तो सब कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे। मैंने भी सफ़दर हाशमी के साथ गाने गाए हैं जामा मस्जिद के चौक में। धर्म-जाति-वर्ण का कोई मामला ही नहीं हुआ करता था। अब जो पुराने क्रांतिकारी साथी हैं उनके लिए क्या शब्द विशेषण लगाऊं, कहां नाराज़ होते हैं, कहां राज की कामना रखते हैं, कुछ समझ में नहीं आता। क्रांति आमूलचूल बदलाव की बात करती थी, अब आम आदमी की चूल हिलाई जा रही है।

—तौ का करें, बता!

इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है कि एक क्रांतिकारी चेतना के साथ सद्भाव-बिगाड़ू तमाम ताकतों से लड़ा जाए। पर चचा, लड़ा कैसे जाए, ये बम-पटाखे फोड़ने वाले तरकीब भी नई-नई निकाल लाते हैं। साइकिल पर टिफ़िन में बम रखने लगे…. पूरे विश्व की पुलिस लग जाए तो भी तलाश नहीं सकती। साइकिलों पर बैन लगा दोगे और क्या करोगे? फिर पैदल ही हाथ में टिफिन रखकर चलेगा, तब क्या करोगे? अरे, बम टिफिन में नहीं है चचा। दिमाग में है। वहां डिएक्टीवेट करना पड़ेगा। मुक्तिबोध के शब्दों में— स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता, क्रॉस एग्ज़ामिन हिम थॉरोली!!दिमाग़ में भ्रांति की जगह क्रांति ट्रांसप्लांट करानी पड़ेगी। ये नई क्रांति अख़बारों की अनेकता से नहीं, घरबारों की एकता से एगी