Wednesday, October 08, 2008

पुतलों के बारे में पुतलियों में पीड़ा

--चौं रे चम्पू! त्यौहारन पै आजकल्ल बजार हाबी हैं रए ऐं। तेरौ का बिचार ऐ?
--चचा! बाज़ार हावी तो हो ही रहे हैं, हॉबी भी बनते जा रहे हैं। भूमंडलीकरण के बाद बाज़ार का चरित्र तेज़ी से बदल रहा है, जिसका आधा चेहरा गोरा और आधा काला है। अपने त्यौहारों के सामान पहले हम ख़ुद बनाते थे या हमारे कारीगर भाई बनाते थे। मिट्टी के दीए, बांस की खपच्चियों की कन्दील, ईद की टोपियां, खानपान की चीज़ें, मिठाइयां, सेवइयां, खील-बसाते। अब हालांकि बाज़ार ने फास्ट-फूड के तासे बजाना शुरू कर दिया है फिर भी त्यौहार का ऊपरी स्वरूप देखने में पारंपरिक सा ही है। मिट्टी के लक्ष्मी-गणेश की जगह चीन से फाइबर की मूर्तियां बनकर आने लगीं। सस्ती की सस्ती, देखने में और सुन्दर। मिट्टी के दीवलों की जगह बिजली के दीए और झालरें भी चीन से बहुत सस्ती आती हैं।
--तो जा में नुकसान का ऐ?
--दो नुकसान हैं चचा। एक तो मिट्टी के दीवलों को धोने से और घी-तेल के होने से जो महक आती थी, वो ख़त्म हो गई और दूसरे,

त्यौहारों पर हमारे कारीगरों के चेहरों पर जो चमक-चहक आती थी वो जाती रही। ग्लोबलाइज़ेशन की काली ताकतों ने ग्राहकों का चेहरा तो क्रीम लगा कर गोरा कर दिया है पर आपसी तालमेल की भावना का निचोरा कर दिया है। अभी कुछ चीज़ें हैं जो बदली नहीं है। मुझे डर है, कहीं वो भी बदल न जाएं।
--जैसे कौन सी चीज़?
--जैसे रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतले। क्या किसी ने इस बात पर ध्यान दिया कि सदियों से मुस्लिम कारीगर रामलीला के पुतले बनाते आ रहे हैं। पुतले बनाने में समूचा परिवार लग जाता है और हर बरस पहले से ऊंचा रावण बनाते हैं। मैं दिन में रामलीला ग्राउंड गया था, विराट पुतले मैदान में लेटे हुए थे।



रावण का गुफा जैसा पेट। उसमें शौकत मियां के परिवार के बच्चे प्लास्टिक की सुतलियों से बांस की खपच्चियां कस रहे थे। लेई, अबरक़-पन्नी की जगह फेविकोल और पॉलिथिन शीट दिख रही थीं, पर कारीगरों के हाथ वही थे। सलमे-सितारे ज़रूर अब प्लास्टिक के थे पर शौकत साहब की सलमा और कुनबे के सितारे वही थे। पिछली बार जब मैंने इन बच्चों देखा था तो छोटे-छोटे थे। अब शौकत मियां की आंखों के तारे बड़े हो चुके हैं। काम तो कर रहे हैं, लेकिन सहमे-सहमे नज़र आते हैं।
--हां! धमाके दसहरा ते पहलै ई है गए ना!
--लेकिन उन धमाकों से शौकत मियां के कुनबे को तो नहीं दहलना चाहिए न! मुझे याद है उनकी सलमा रावण के कुण्डल को पालना समझ कर अपने सबसे छोटे बेटे अय्यूब को सुला दिया करती थी और बीच-बीच में झुला दिया करती थी। वो अय्यूब अब बड़ा हो गया है और अब्बा से कहता है कि देख लेना अब्बू अब ये लोग हमें आगे से बुलाना बन्द कर देंगे। शौकत मियां पुतलियां चौड़ा कर कहते हैं, कैसे बन्द कर देंगे? है किसी के पास ऐसा हुनर जो इतने ऊंचे पुतले बना दे। अय्यूब चुप हो जाता है। पहले मैं देखता था कि शौकत मियां के बच्चे कभी कुंभकर्ण के तो कभी मेघनाद के पेट में धमाचौकड़ी मचाते थे। अब सहमे-सहमे सुतलियां बांधते हैं और कनखियों से आते-जातों को निहारते हैं। कई बरस पहले मैंने शौकत मियां से एक सवाल किया था कि जब आपके बनाए हुए पुतले जलते हैं तो आपको कैसा लगता है? वे बोले-- हां हम पुतले बनाने में लगाते हैं पूरा महीना, बहाते हैं दिन-रात पसीना। नहाते हैं न धोते हैं, बहुत ही कम सोते हैं। एक महीने की मेहनत जब कुछ ही पलों में जल जाती है फक्क से, तो जी रह जाता है धक्क से। लेकिन जब सुनते हैं बच्चों की तालियां और देखते हैं उनके गालों पर लालियां, उनके चेहरों पर खुशियां और मुस्कान, तो मिट जाती है सारी थकान। फिर हम भी लुत्फ़ उठाते हैं और अपने हुनर को जलता देखकर तालियां बजाते हैं। लेकिन पता नहीं दिलों में दूरियां बढ़ाने वाले हैवानियत के रावण कुंभकर्ण और मेघनाद कब जलेंगे?
--बहुत सही बात कही सौकत मियां नै।
--चचा, बाज़ार के ख़तरे को शौकत मियां नहीं अय्यूब समझता है। वो जानता है कि आने वाले वर्षों में चीन से छोटे-छोटे कंटेनरों में बन्द फाइबर के बने ऐसे पुतले आ जाएंगे, जिनमें मशीन हवा भरेगी और देखते ही देखते वो मॉल जितनी ऊंचे हो जाएंगे। ....यही ग्लोबलाइज़ेशन का काला चेहरा है चचा, जिसकी वजह से स्वदेशी पुतलियों में पीड़ा है।

13 comments:

Jaidev Jonwal said...

guru ji ko parnaam or
dushera parv ki meri taraf se hardik subkaamnaye
aap mere blog par bhi aaye
mujhai aapka intezaar rahega
wwww.kavijaidevjonwal.blogspot.com

Jaidev Jonwal said...

kaash aapki baat hamare desh ke hukiumrano ko bhi samaj aa jaaye or jale dilo ke ravan,kumkaran logo ki umhide or sapne na jal paaye ho globlization magar sabke hiit mein ho agar aaye bahar se rawan to kuch rawan hamare bhai kalakaro ke bhi jalaye jaaye
unke barso ke tap ko yun bhang na karna aap ravan jalaana jarur par
kisi ke pet ke bhukh ko bhi tiript karna
www.kavijaidevjonwal.blogspot.com

Udan Tashtari said...

बहुत सही बात कही और बहुत उम्दा कल्पना!!

विजय दशमी पर्व की बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाऐं.

-समीर लाल

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आपको विजया दशमी की बधाई एवँ शुभकामना, परिवार सह:

- लावण्या

rakhshanda said...

बहुत खूबसूरत, आपको दशहरा की मुबारकबाद

Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Sumit Pratap Singh said...
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Sumit Pratap Singh said...

गुरुदेव! सादर ब्लॉगस्ते!

ग्लोबलाइज़ेशन पर अपुन का एक तड़का आपके चरणों में समर्पित है।

सस्ते-मद्धे के लालच में न लें चीनी सामान

घटिया सामग्री से बनता है ये श्रीमान,

भारत के लघु उद्योगों का कर देता नुकसान

कुछ दिन में हो जाता बेकार ये चीनी सामान,

बनें देशभक्त खरीदें केवल सामान स्वदेशी

पनपे उद्योग मिटे गरीबी ये देखें विदेशी।

अमित माथुर said...

गुरुदेव को प्रणाम, आपकी बात से सहमत हूँ की आज बच्चो को घर के बहार खाट डालकर सोना बहुत भद्दा लगता है और भला केवल नरम बिछोने का गद्दा लगता है मगर आख़िर कब तक हम अपने बीते हुए वक्त को रोयेंगे और अपनी आस्तीनों को अपने पुराने दिनों से भिगोएँगे? आज बाज़ार में पैसे देकर बहुत कुछ मिलता है तब नहीं मिलता था. जो तब पैसे देकर मिलता था और हमे अच्छा लगता था वो हमारे पिताजी को बुरा लगता था. इसलिए मेरे विचार से हमे उपभोक्तावाद का सकारात्मक पक्ष देखना चाहिए. वैसे ऊपरवाले की बनाई दुनिया में सब उसी की मर्ज़ी से चलता है. -अमित माथुर.

अमित माथुर said...

आपको भेंट में मानसिक और भावनात्मक मिठाई है / विजयदशमी और करवाचौथ की हार्दिक बधाई है. -अमित माथुर फिर से

इरशाद अली said...

सारे तो बच्चे ही है आपके। आप तो जगद्गुरू हुए जाते है। अच्छा है। डिजिटल दुनिया भी आपको वही सम्मान और हक देती है जो आपको साहित्यिक समाज ने दिया है। खैर बात ये नही है, ताजा पोस्ट अजीब सी विसंगती को सामने रख देती है। मैं जब इसे पढ़ रहा था तब सारा लेख दिखाई भी दे रहा था। ये आपका भी चमत्कार है सुनाने के अलावा दिखाने का भी।

अभिषेक मिश्र said...

हां हम पुतले बनाने में लगाते हैं पूरा महीना, बहाते हैं दिन-रात पसीना। नहाते हैं न धोते हैं, बहुत ही कम सोते हैं। एक महीने की मेहनत जब कुछ ही पलों में जल जाती है फक्क से, तो जी रह जाता है धक्क से। लेकिन जब सुनते हैं बच्चों की तालियां और देखते हैं उनके गालों पर लालियां, उनके चेहरों पर खुशियां और मुस्कान, तो मिट जाती है सारी थकान। फिर हम भी लुत्फ़ उठाते हैं और अपने हुनर को जलता देखकर तालियां बजाते हैं। लेकिन पता नहीं दिलों में दूरियां बढ़ाने वाले हैवानियत के रावण कुंभकर्ण और मेघनाद कब जलेंगे?
Jahan aisi soch wale muslim bhai bhi hain waha kyon aa rahi hain itni dooriyan. Bahut dukh hota hai. itni sundar rachna ke liye dhanyawad.

Unknown said...

prayas Accha laga ji