Thursday, July 16, 2009

पुर्ज़े जोड़ने वाले चलते पुर्ज़े

—चौं रे चम्‍पू! ऐसौ कौन सौ यंत्र ऐ जाते पैसन की इफरात है जाय?
—ऐसा एक ही यंत्र है जो पैसों की इफ़रात करा सकता है। पैसों की बरसात करा सकता है। पैसों के दिन-रात करा सकता है।
—बता-बता!
—इतनी आसानी से नहीं बताऊंगा चचा! कोई सुन लेगा। कान इधर लाओ तो बताता हूं। ....और ये भी सुन लो, किसी और को बताना मत! चचा, वो यंत्र है— षड्यंत्र! ….अरे हंस रहे हो! बिल्कुल सही बात बताई है।


—हां! बात में दम ऐ, पर इस्तैमाल कौ तरीका तौ बताऔ?
—षड्यंत्र नामक यंत्र को लगाने के लिए निष्ठाहीनता की ज़मीन चाहिए। यानी बेवफ़ाई, बेमुरव्वती, अनिष्ठा और नमकहरामी। जिसका खाओ उसको भूल जाओ। खाने के नए-नए प्रबंध करो और पाचन-शक्ति बढ़ाओ। पाचन-शक्ति भी ऐसे नहीं बढ़ेगी। उसके लिए अहसान फरामोशी के साथ चाहिए ज़मीरफरामोशी। अपने ज़मीर को भी धोखा दो। यानी निष्ठाहीनता की ज़मीन पर विश्वासघात की बुनियाद डालो। अपघात करो, कपट करो। गद्दारी, दगाबाज़ी, हरामखोरी ये वे तत्व हैं जो बुनियाद को मज़बूत करते हैं। मित्रद्रोह या मित्रघात से बुनियाद और पुख़्ता होती है। अब षड्यंत्र नामक यंत्र को स्थापित करने के लिए कुछ चीज़ें ऐसैम्बल करनी पड़ेंगी। पुर्ज़े जोड़ने के लिए चलता पुर्ज़ा बनना पड़ेगा। वो पुर्ज़े हैं छल, कपट, छ्द्म, जालसाज़ी, ठगई, दगा, धांधली, धूर्तता, प्रपंच, पाखण्ड, फंद, दंद-फंद, फरेब, मक्कारी, फेराहेरी, बेईमानी। इन पुर्ज़ों को जोड़ने वाला एक पुर्ज़ा होता है। षड्यंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पुर्ज़ा— भ्रष्टाचार।
—इत्ते सारे पुर्जा?
—समाज में बिखरे पड़े मिल जाएंगे। ख़ास मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी चचा। इन पुर्ज़ों को इकट्ठा करने के लिए एक सवारी चाहिए। उस वाहन का नाम है— अवसरवाद। चढ़ते सूरज को सलाम करो, अपनी सुविधा, मतलबपरस्ती और स्वार्थ-साधना के लिए स्वयं को परिवर्तनशील बनाओ। तोताचश्म हो जाओ। सवारी करने के लिए गद्दारी का हुनर ज़रूरी है। गद्दारी करो, तभी गद्दी मिलेगी। हर पुर्ज़ा नए पुर्ज़े को ढूंढने में मदद करता है। एक बार अवसरवाद की सवारी कर ली तो राह चलते आंखों में धूल झोंकना, उल्लू बनाना, चकमा देना अपने आप आ जाएगा।


कुछ कौशल अनुभव से आएंगे जैसे— सांठ-गांठ, मिलीभगत, दुरभिसन्धि, कृतघ्नता आदि-आदि। तुम धीरे-धीरे लोगों को काटना सीख जाओगे। मीठी छुरी बन जाओगे। शहद से मीठी छुरी। मौकापरस्त बने रहे तो पस्त नहीं हो सकते। व्यस्त रहोगे और मस्त रहोगे। तुम्हारा यंत्र यानी कि षड्यंत्र, पैसों का धकाधक प्रोडक्शन करेगा। ….और पैसे से क्या काम नहीं हो सकता चचा?
—का पैसन ते ई सारे काम हौंय?
—अब चचा तुम मुझे ज़मीन से ज़मीर पर ला रहे हो। सोचना पड़ेगा। बाई द वे, मैं तुम्हारा सवाल भूल गया, ज़रा फिर से बताना।
—यंत्र कौ इस्तैमाल सुरू कर दियौ का?
—नहीं चचा! अभी पुर्ज़े जोड़े कहां है?
—मैं तेरी फितरत जानूं। तू नायं जोड़ सकै। सब्दन कूं जोड़िबे कौ खेल कर सकै ऐ बस्स। सवाल कौ जवाब दै। का सारे काम पैसन ते ई हौंय?
—नहीं चचा! कुछ काम सिर्फ ‘पैशन’ से होते हैं। आंतरिक उत्साह, समर्पण और प्रतिबद्धता से। कोई पैसा दे कर सारे काम नहीं करा सकता। पैशन दुनियादार नहीं होता। वह तो अन्दर की ज्वालाओं में तप कर आता है। वह ख़ुद नहीं बदलता, ज़माने को बदलता है। यह भी एक यंत्र है, पर षड्यंत्र नहीं सद्-यंत्र है। अगर सारे लोग इस यंत्र से काम लें तब भी पैसे की इफ़रात हो सकती है। वह भी अवसरवाद होगा लेकिन सिर्फ अपने लिए नहीं, सबके लिए अवसर। पता नहीं ऐसे दिन देखने का अवसर कब मिलेगा? अपने एक दोस्त हैं चचा, मारूफ़ साहब, वे अक्सर कहा करते हैं— ‘ऐसे दिन आएं कि ख़्वाबों की ज़रूरत न रहे, ऐसे कुछ ख़्वाब भी पलकों पे सजाए रहिए’। मैं मानता हूं ऐसे दिन आएंगे चचा। पैशन में कमी नहीं रहेगी तो पैसन में भी कमी नहीं रहेगी।

Wednesday, July 15, 2009

गुज़र कर क्या करोगे, कर गुज़रो

—चौं रे चम्पू!! राजतंत्र और जनतंत्र कौ कोई एक मुख्य अंतर बता?
—चचा, राजतंत्र में किसी निर्णय को लागू कराने में एक दिन क्या, एक मिनट नहीं लगता, लेकिन जनतंत्र में किसी योजना को अमल में लाने के लिए सौ दिन भी कम पड़ते हैं।
—तेरे दिमाग में नई सरकार के सौ दिन के एजेण्डा की बात ऐ का?
—बिल्कुल वही है। ये सरकार कुछ कर गुज़रना चाहती है, लेकिन ऐसे लोग, जो गुज़र गए और कुछ कर न पाए, उनके पेट में मरोड़ है। नए प्रस्ताव उन्हें दिशाहीन, अतार्किक और अव्यावहारिक लगते हैं। उन्हें तो विरोध के लिए विरोध करना है बस। यशपाल जैसे अनुभवी और वरिष्ठ शिक्षा-शास्त्री ने हर स्तर की शिक्षा के लिए वर्षों के अनुसंधान के बाद कुछ सिफ़ारिशें की हैं। जाने माने शिक्षा-शास्त्री कृष्ण कुमार समर्थन कर रहे हैं और मानव-संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने ऐलान कर दिया कि नई शिक्षा नीति सौ दिन के अन्दर लागू हो जाएगी।


विरोधी तो विरोधी, कुछ अंतरंग भी हो गए क्रोधी।
—तौ मुद्दा का ऐ?
—तुम्हें मालूम तो है चचा! किशोर बच्चों पर और उनके अभिभावकों पर परीक्षा का भारी तनाव रहता है। बहुत सोच-समझ कर ये फैसला लिया जा रहा है कि दसवीं के बोर्ड की परीक्षा से बच्चों को मुक्त किया जाए। स्थानीय शिक्षक ही उनके काम का मूल्यांकन करें। वो फिल्म देखी थी चचा, ‘तारे ज़मीं पर’। क्या शानदार सन्देश था उसका। हर बच्चे में कोई चमक होती है। समय रहते अगर उस पर आपकी निगाह न जाए तो चमक फीकी पड़ने लगती है। मुक्तिबोध ने कहा था— ‘मिट्टी के ढेले में भी होते हैं किरणीले कण’।


अगर उन दीप्तिमान कणों की पहचान न हो पाए तो ढेला या तो उपेक्षित रह जाता है या बुलडोज़र के नीचे आ जाता है। हमारी शिक्षा-प्रणाली कई बार अंकुरित होती प्रतिभाओं पर बुलडोज़र फिरा देती है। दसवीं कक्षा तक स्कूल का शिक्षक बच्चों का आदर्श होता है क्योंकि बच्चों से उसका सीधा और आत्मीय संबंध होता है। वह हर बच्चे के अलग-अलग किरणीले कणों को पहचानता है इसलिए उन्हें आगे की राह सुझा सकता है। चचा, मैं इस बात से सहमत हूं कि दसवीं की परीक्षा को बोर्ड की परीक्षा न बनाया जाए। बच्चा परिपक्व होकर प्रतियोगिता में निकले और अपनी रुचियों और क्षमताओं के अनुसार अपना भविष्य चुने। चचा, हमारा अतीत होता है आचार-विचार-पत्र, वर्तमान समाचार-पत्र, भविष्य प्रश्न-पत्र और हमारी ज़िंदगी है उत्तर-पुस्तिका। उत्तर-पुस्तिका पर लिखते समय इतना तो बोध हो जाए कि भविष्य के प्रश्न-पत्र को कैसे हल करना है। एक किशोर पर आप अपने निर्णय नहीं लाद सकते। बारहवीं का बोर्ड एकदम ठीक है और मैं इस बात से भी सहमत हूं कि खूब सारे विकल्पों की सुविधा देते हुए कुछ अनिवार्य विषयों के साथ, पूरे देश में एक पाठ्यक्रम और एक बोर्ड होना चाहिए। प्रांतीयतावाद और क्षेत्रीयतावाद को समाप्त करने का इससे बढ़िया कोई तरीका नहीं है।
—तौ बिरोध का बात कौ?
—विरोधी भिन्नता की दुहाई देते हैं। चचा, दसवीं ग्याहरवीं में सिखाई जाती थी जटिल-भिन्न, आजकल के बच्चे जिसे कहते हैं कॉम्प्लेक्स ईक्वेशन।


देश भर के सारे बच्चे इन्हें सरल करना सीखते हैं। हमारा देश भी किसी जटिल-भिन्न से कम नहीं है। भिन्नताएं हैं, विभिन्नताएं हैं लेकिन अगर वे अभिन्न होने की दिशा में नहीं बढ़ेंगी तो भुनभुनाती रहेंगी, परिणामत: जीवन की उत्तर-पुस्तिका पर संकीर्ण सोच की ज़हरीली मक्खियां भिनभिनाने लगेंगी। माना कि असम और केरल की संस्कृति भिन्न हैं लेकिन देश की आस्था और राष्ट्रीय मानकीकृत जीवन-मूल्यों का स्वर तो एक है। हमारे राष्ट्रीय आईकॉन तो एक हैं। केरल का युवा असम जाए तो चिंतन की, व्यवहार की, और भविष्य के लक्ष्य की एक समता तो महसूस करे। एक चीज़ और है जिस पर मैं बल देना चाहता हूं और इसमें कोई राजनैतिक रोड़ा नहीं अटकना चाहिए। वह है हिन्दी भाषा। हम सब आज अपने इस आज़ाद देश की हवा और हंसी के हकदार हैं, हमें याद रखना चाहिए कि आज़ादी दिलाने में हिन्दी ने पूरे देश को एक धागे में पिरोने का काम किया था। पूरे देश के लिए जो एक पाठ्यक्रम बने उसमें राज्य की सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुसार वैकल्पिक विषय ज़रूर हों, लेकिन हिन्दी हो अनिवार्य।
—तू चौं झगड़िबे के इंतजाम कर रयौ ऐ?
—सारे झगड़े मिट जाएंगे चचा! मैं तो जनाब कपिल सिब्बल से कहता हूं कि वक्त गुज़र जाएगा, सौ दिन बहुत होते हैं, इंटरनेट के ज़रिए राज्यों से तत्काल सहमति-असहमति पर विचार करो और कर गुज़रो।