Wednesday, December 29, 2010

कसक का बारहमासा

—चौं रे चम्पू! दो हज्जार दस बीतिबे वारौ ऐ, कोई कसक तौ नायं ऐ तेरे मन में?
—चचा, कसकों का पूरा बारहमासा है, जनवरी से दिसंबर तक का, और पूरा दिनतीसा है हर महीने का, कहो तो पूरा सुना दूं?
—चल, बारहमासा ई सुना!
—जनवरी की शुरुआत में ही ख़बर मिली कि ऑस्ट्रेलिया में जातीय हिंसा के शिकार हो रहे हैं भारतीय विद्यार्थी, निकल गईं परदेस में कई अर्थी। पढ़ने गए थे, जीवन खो दिया, यहां सारा देश रो दिया। चचा, समृद्ध दुनिया में जवान होती हुई पीढ़ी की तनो-धनो-मनोदशा बहुत खराब है। सस्ती रुचियों और मस्ती के लिए हिंसापरस्ती की राह पकड़ लेते हैं। उन्हें ज़िम्मेदारियों का वैसा अहसास नहीं होता जैसा भारतीय छात्रों को होता है। हमारे विद्यार्थियों के लिए मामला कर्तव्य का होता है न कि उनकी रुचि का। और जनवरी में ही याद होगी आपको रुचिका। राठौर केस वाली! उसके साथ तो अपने देश का प्रौढ़ ही हिंसक हो उठा। न्याय की किरण फूटी थी लेकिन वह किरण भी झूठी थी, क्योंकि देरी से मिला न्याय अन्याय ही होता है।
—हां, राठौर की मूंछन में कोई गिरावट नायं आई।
—जनवरी की ठण्ड, दे नहीं पाई उसे उचित दण्ड। फरवरी में फर फिर से बिखर गए मनुष्यता के। पंख छितर गए, खून में सन गए। याद है पुणे की जर्मन बेकरी! सिल्दा में भी नक्सली हिंसा! मार्च में गूंजता रहा ‘बीटी ब्रिंजल’ का किस्सा। दुखी जयराम रमेश, विरोध ने बढ़ा दिया चित्त को क्लेश। बेंगन निकले बेगुन! मजा नहीं आया। लेकिन जब आई अप्रैल, तो ख़ुश हो गईं झोंपड़ी-खपरैल, क्योंकि कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार की घोषणा कर दी। कहा गया कि गरीब से गरीब आदमी के बच्चों को शिक्षा पाने का अधिकार है और राज्य इसके लिए जिम्मेदार है। अब सवाल ये है कि कपिल सिब्बल दिल्ली में बैठे-बैठे कैसे देश के सात लाख गाँवों की सात करोड़ खपरैलों को अप्रैल की घोषणा का सुख दे पाएंगे।
—सुरुआत तौ भई!
—फिर आई मई। लेकिन हिंसा नहीं गई। उसका केन्द्र बदल गया। नक्सलवादियों और माओवादियों के निशाने पर छत्तीसगढ़ आ गया। छत्तीसगढ़ में लौह खनिज बहुत है चचा, और लहू का रंग भी लाल होता है। पता नहीं ये कैसे कायर लौहपुरुष हैं जो पीछे से घात करके करते हैं निरीह लोगों का सफाया। समझ में नहीं आती हमें इस नक्सलवाद की माया। माया का खेल जून में दिखा गए श्रीमान ललित मोदी! जिन्होंने आईपीएल की सारी प्रतिष्ठा ही खो दी। जून में ही फेंकी गई एंडरसन की तरफ गुगली, उठाते रहे एक दूसरे की ओर उंगली। हमने नहीं उन्होंने भगाया। रहस्य सामने नहीं आया। भोपाल ने चखा अन्याय का स्वाद। अवसाद ही अवसाद। मनुष्यता की इतनी बड़ी त्रासदी को मिली चवन्नी। वो भी खोटी।
—जुलाई में महंगी है गई रोटी। मैंनैं ऊ तुक मिलाय दई रे!
—बिल्कुल सही मिलाई! खूब नाच दिखा गई सुरसा की मम्मी महंगाई। अगस्त में राष्ट्रवाद की लहर आई। मालेगांव में हिंसा लाई। अयोध्या के मामले में हाईकोर्ट ने भावनाओं को रखा हाई। जमीन बराबर-बराबर बांटने की दी गई दुहाई। सबको अच्छी लगी लेकिन बड़ी जल्दी सबने पलटी खाई। सितम्बर में खुल गए मुंह के ताले, क्योंकि सामने आने लगे कॉमनवैल्थ के घोटाले। अक्टूबर की जगर-मगर ने उस अगर-मगर को थोड़ा सा ठण्डा भी किया। लोगों ने दिल्ली की मैट्रो और बहते ट्रैफिक में विकास का मजा भी लिया।
—नवम्बर नै का कमाल दिखाए रे?
—नवम्बर महीने ने टूजी घोटाले को टटोला। इसी महीने आया ओबामा का उड़नखटोला। कितनी चालाकियों से भरी है अमरीकी शैली। छिप नहीं पाती हैं भावनाएँ मैली। हमारे बच्चों के सवालों ने सारी चालाकियां बिखरा दीं, भविष्य के लिए आशाएं निखरा दीं। चचा, और अब ये जो दिसम्बर जा रहा है, इसमें भी मजा आ रहा है। बेचारे सुरेश कलमाडी को ब्लैकमेल किया जा रहा है। पता नहीं कौन सी सीडी है जिसके लिए चार करोड़ की तमन्ना का संदेशा आ रहा है! चार करोड़ तो चीनी के दाने के बराबर हैं, जहां चालीस हजार करोड़ के खजाने हुआ करें। तीन दिन और रह गए हैं चचा, चलो नए साल के लिए दुआ करें।
—हां लल्ला, दो हजार ग्यारै, कोई मार नायं मारै! कोसिस पक्की करौ, हर काम नक्की करौ और तान कै तरक्की करौ!

Friday, December 24, 2010

कलश के पीछे हिलते गांधी

—चौं रे चम्पू! पिछले दिनन में कौन सी खास चीज देखी?
—चचा मैंने एक यात्रा का अंत देखा और एक अंतिम यात्रा का अंत देखा।
—तोय बात घुमाइबे में भौत मजा आवै। खुलासा कर।
—मुझे मालूम था कि तुम ऐसा ही कोई डायलॉग मारोगे चचा। अभी तीन-चार दिन पहले एक चलते-फिरते फिल्म महोत्सव की यात्रा का अंत हुआ। बड़ा अच्छा आइडिया निकाला है चचा! फिल्म महोत्सव आमतौर से महानगरों में होते हैं। जेएफएफ एक ऐसा फिल्म महोत्सव था जिसमें श्रेष्ठ फिल्में ऐसे तेरह शहरों मे दिखाई गईं जहाँ आमतौर से फिल्म महोत्सव आयोजित नहीं होते। फिल्मों की यात्रा सात महीने पहले लखनऊ से शुरू हुई थी और दिल्ली के सीरीफ़ोर्ट ओडिटोरियम में समाप्त हुई। ये फिल्में उन हजारों दर्शकों ने देखीं जो शायद कभी इन्हें देखने सिनेमा हॉल न जाते।
—ठीक! बात समझ में आई। अब दूसरी यात्रा बता। अंतिम यात्रा कौ अंत। जाकौ का मतलब भयौ?
—अनुराग कश्यप की ’गुलाल’ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला और सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए ’रोड टु संगम’ के निर्देशक अमित राय को। अनुराग कश्यप के बारे में तारीफ करते हुए किसी ने कहा कि इस देश के लिए एक ही अनुराग कश्यप पर्याप्त है, दो नहीं चाहिए। जूरी के अध्यक्ष ने कहा कि यदि एक अनुराग कश्यप पर्याप्त है तो एक अमित राय भी आवश्यक है। अमित राय को विशेष जूरी सम्मान भी दिया गया।
—अंतिम यात्रा के अंत कौ का भयौ?
—चचा, तुममें धीरज नहीं है। अमित राय की फिल्म ’रोड टु संगम’ में गांधीजी की भस्म के अंतिम कलश की अंतिम यात्रा का दृश्य दिखाया गया था। इतिहास मरी हुई मछलियों का कोई झुण्ड नहीं है जो समुद्र की तलहटी में पड़ा हो। इतिहासकार उन मछलियों को बाहर लाता है, पटरे पर रखता है, सजाता है और वे मृत समझी जा चुकी मछलियां फिर से अपनी पूंछ हिलाने लगती हैं। प्राणवंत, जीवंत, गतिमय दिखाई देने लगती हैं।
—फिलम की कहानी बता।
—फिल्म ‘रोड टू संगम’ की कहानी तो आपको बताऊंगा नहीं पर एक दृश्य ने मेरा ध्यान खींचा। पुष्पसज्जित पुरानी फोर्ड गाड़ी पर गांधी जी का अंतिम अस्थिकलश रखा हुआ है। उसके पीछे गांधी जी की एक कांस्य प्रतिमा रखी है। हमने पिछले बासठ साल में गांधी जी की ऐसी प्रतिमाएं देखी हैं जो जड़वत थीं, स्थिर एकदम। कई बार उन पर कौवा भी बैठ जाता है, चिड़िया भी कुछ कर जाती है। हम साफ करने कभी जाते हैं, कभी नहीं भी जा पाते हैं। गांधी हर जगह हमें मूर्तिवत दिखाई देते हैं, लेकिन इस फिल्म में गांधी हिल रहे थे। हिल इसलिए रहे थे कि वे सीमेंट में गड़े हुए नहीं थे। वे रखे हुए थे और हिल रहे थे। फिल्म के दौरान वे हिल रहे थे हम सबके अन्दर। अमित ने उनको हमारे अन्दर हिला दिया था। हमें लगने लगा था कि वह विचारधारा जिसको हम माने बैठे हैं कि मूर्तिमंत होकर समाप्तप्राय और जड़ हो गई थी, उसकी जड़ता तोड़ दी फिल्म ने। इस फिल्म में कहीं भी गांधीवाद का दार्शनिक-सैद्धांतिक पक्ष नहीं दिखाया गया। गांधी जी की कथनियों और करनियों का कोई लेखा-जोखा नहीं!
—फिर गांधी कैसै हिलन लागे?
—हशमत भाई और कसूरी साहब के चरित्रों के ज़रिए। एक अदद मोटर-इंजन है, जो इस फिल्म में दिल की तरह धड़कता है, लेकिन मुहब्बत के तेल के बिना नहीं चल पाता। धड़धड़ाते हुए बताता है कि कैसे धर्म और राजनीति व्यक्तिगत स्वार्थों के साथ लिपटकर पूरी कौम को गलत निहितार्थों तक पहुँचा देते हैं।
—अमित राय कौ पतौ बता। एक पोस्टकार्ड लिख दिंगे।
—पोस्टकार्ड से ही फिल्म शुरू होती है। अमित राय एक ऐसे निर्देशक के रूप में हमारे सामने आते हैं जिनके अन्दर शोध की प्रवृत्ति है, अध्ययनजन्य तार्किकता है, सुलझी हुई दृष्टि के साथ देश के प्रति प्रेम है, समय के सच को नापने का एक बैरोमीटर है। आज जब विचारधाराएँ धीरे-धीरे गायब हो रही हैं, आतंकवाद के ओर-छोर पकड़ में नहीं आते, हशमत मियाँ बच्चों को विचारों की पतंगों की डोर थमा देते हैं। हसमत मियां पतंग बांट रहे हैं। हशमत मियां पोस्टकार्ड और मुस्कानों से काम चला रहे हैं।
—फिलम चलैगी?
—इसी बात का तो रोना है। सांस्कृतिक कुपोषण के शिकार दर्शक टिकिट खिड़की तक मुश्किल से आएँगे। हाँ, पंकज दुबे, प्रशांत कश्यप जैसे लोग, चलते-फिरते फिल्म महोत्सवों के ज़रिए अच्छी फिल्मों को लोगों तक ले जाएँ तो बात दूसरी है।

Wednesday, December 15, 2010

चाचाचम्पू डॉट कॉम

—चौं रे चम्पू! जा उमर में मोय कंपूटर पै लगाय दियौ तैनैं, चार दिना ते गूगल सर्च में लगौ भयौ ऊं, जो साइट तैनैं बताई बो तौ मिली ई नायं, कैसी सर्च ऐ रे?
—चचा, कम्प्यूटर तो करे की विद्या है। लगे रहो चम्पू भाई।जो साइट मैंने आपको बताई, वह सीधे ही मिलेगी, गूगल सर्च से नहीं। गूगल सर्च में होगी भी तो पड़ी होगी तीसरे चौथे पेज पर। गूगल सर्च की माया निराली है।
—हमैं ऊ बताय दै, माया की माया।
—सर्च की सर्च करने पर समझ में आती है माया।आंकड़े बताते हैं कि किसी भी नाम या विषय पर कोई खोजक सर्च करे तो वह पहले तीन या चार लिंक्स पर ही जाता है, भले ही सर्च परिणाम आपको बताएं कि इस विषय पर हज़ार पेज और बीस हज़ार लिंक्स हैं। तीन लिंक्स के बाद चौथे लिंक तक खोजक की खुजली मिट चुकी होती है। उसे लगता है कि उसका काम उन्हीं तीन में बन गया। इस तरह शेष और श्रेष्ठ सामग्री से वह वंचित रह जाता है।
—पहली तीन-चार ई सबते अच्छी होती हुंगी!
—यही तो गूगल खोज का खेल है चचा, सबसे अच्छी पिछड़ जाती हैं।ऊपर वही आती हैं जो गूगल को भाती हैं।उसके लिए मुनाफा लाती हैं।
—तेरी बात समझ में नायं आई रे!
—चचा! नुमाइश में दुकानें लगती हैं। वही दुकान ज्यादा कमाती है जिसको मौके की जगह मिले। अगर पिछवाड़े में पड़ गई दुकान तो अच्छा होने के बावजूद बिकेगा नहीं सामान। गूगल की मलाई इसमें है कि वह नुमाइश में प्लॉट देने का ठेकेदार बन गया है। अगर मैं एक वेबसाइट बनाता हूं चाचाचम्पू डॉट कॉमऔर चाचाचम्पू कम्पनी की ओर से मोटी राशि के विज्ञापन गूगल को देता हूं तो सर्च के दौरान पहले तीन लिंक्स में हमारी साइट आ जाएगी अन्यथा बीसवें नम्बर पर चली जाएगी। कर लो आप क्या करोगे।
—फिर पहली तीन चार पै कौनसी साइट आमिंगी रे?

—दुनिया में हज़ारों चम्पू हैं, लाखों करोड़ों चाचा हैं। सबके सब आ जाएंगे। सबसे पहले यू-ट्यूब, जो गूगल की हीलीला है, फिर आएंगी गूगल बुक्स, गूगल म्यूज़िक, गूगल क्रोम की साइट्स, जहां भी चाचा या चम्पू का नाम आया होगा। गूगल बुक्स में हुआ तो किताब बिकने की सम्भावना, गूगल म्यूज़िक में हुआ तो गीत बिकने के चांस। कॉपी राइट की जगह राइट टु कॉपी! चचा, ये पूरा तंत्र एक त्रिभुज की तरह है। आमने-सामने की भुजाओं में एक तरफ ऑथर यानी लेखक, गीतकार, संगीतकारऔरफिल्म निर्देशक दूसरी तरफ पाठक श्रोता दर्शक। जो आधार की भुजा है उसमें प्रकाशक हैं, वितरक हैं, गर्वनमेंट है, संस्थाएं हैं। गूगल जैसी खोज सुविधा देने वाली कम्पनी के आने के बाद आमने-सामने की भुजाओं का तो कोई सम्बंध रहा ही नहीं। ऑथर की रॉयल्टी का अधिकार मार दिया आधार भुजा के बीच के लोगों ने, बीच की संस्थाओं ने, जैसे पीपीएल, आईपीआरएस। ये संस्थाएंबनीं तो इसलिए थीं कि सबके हितों की रक्षा करें, पर अब तक निरीह ऑथर के बजाय प्रकाशकों, म्यूज़िक कम्पनियों और निर्माताओं को ही पोसती रहीं हैं। गूगल ने तीनों भुजाएं तोड़ दीं।
—तौ कोई रखवारौ नाएं ऑथर कौ?

—हैं चचा, कुछ संस्थाएं हैं, जैसे आईपीआरएसकॉपी राइट सोसायटी। संगीत के क्षेत्र में अच्छा काम कर रही है। आपको याद होगा ‘महल’ फिल्म का गीत ‘आएगा आने वाला’। उसके शायर साहब तो नहीं रहे, उस वक़्त उन्हें गीत लिखने के दस-पन्द्रह रुपए मिले होंगे, लेकिन इधर जब ये गाना पब्लिक के बीच गाया गया तो उनकी रॉयल्टी इकट्ठी हुई। आठ हजार का एक चैक लेकर सीआरएस का बंदा ढूंढने निकला कि किसको ये चैक दिया जाए। झोंपड़-पट्टी में उनकी विधवा पत्नी मिल गईं। चैक देखकर निरीह नारी की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे। चैक देने वाले ने पूछा कि क्या मरहूम शायर की याद आ गई। बोलीं कि पता नहीं, पर मुझे पहली बार लगा है कि मेरा आदमी मुझे कुछ देकर मरा है।
—जैसे वाके दिन फिरे वैसे हर काऊ के फिरें।
—आईपीआरएसने पारदर्शिता से काम किया होता तो विधवा को रॉयल्टी लाखों में मिलती। लेकिन अब जब सब कुछ गूगल पर फोकट में मिलेगा तो चाचाचम्पू डॉट कॉम के दिन नहीं फिरने वाले चचा। आशा की किरण के रूप में सिद्धार्थ आर्य नाम के एक नौजवान ने कॉम्युनिटी फोर गवर्नेंस ऑफ इंटैलैक्चुएल प्रोपर्टी नाम की फोरम बनाई है, सीजीआईपी। देखें ये क्या कर पाती है।

Tuesday, December 07, 2010

डिजिटलन का खलबलन

—चौं रे चम्पू! तेरी कालौनी में कोई बाचनालय पुस्तकालय है कै नायं?
—चचा कम्युनिटी सैंटर में एक कमरा लायब्रेरी के नाम का बनाया गया है। किताबों के चार-पांच रैक हैं,पर वहां इक्का-दुक्का ही कोई आता है। अल्मारियां बन्द रहती हैं। दिलचस्पी न होने का एककारण यह भी हो सकता है कि जिस तरह की किताबों की ज़रूरत आजकल है, उस तरह की वहां मिलती नहीं। दूसरी वजह एक और है चचा।
—दूसरी वजह बता!
—आजकल इंटरनेट पर तरह-तरह की वेबसाइटों में मनवांछित ज्ञान प्रचुर मात्रा में मिल जाता है। बड़ी-बड़ी लायब्रेरियां नेट पर उपलब्ध होने लगी हैं। पाठक नेट से तालमेल करेगा या अपने वाचनालय की पुरानी किताबों की दीमकों को इनहेल करेगा? नौजवान पीढ़ी को अब लाइब्रेरी क्लिक नहीं करती, वह अपने हाउस में बैठी-बैठी माउस के क्लिक पर किताबें पढ़ने लगी है। मुझे भी इच्छित सामग्री नेट पर मिल जाती है। पहले जितनी किताबें पढ़ा करता था, अब कहाँ पढ़ पाता हूँ। घर के हर कमरे में किताबें ही किताबें हैं, पर इस जन्म में पांच प्रतिशत भी पढ़ पाऊँगा, उम्मीद नहीं है।
—तो बाँट दै किताबन्नै!
—हां, बांटी हैं। जगह की कमी के कारण लगभग दो हज़ार पुस्तकें अलग-अलग पुस्तकालयों को दान कर दीं, पर किताबों से मोह समाप्त नहीं होता। सामग्री देखता हूं नेट पर। पठन-पाठन के इस सारे दृश्य में गूगल ने धमाका कर दिया है। प्रकाशकों में हाहाकार मच गया है, लेखक त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, क्योंकि उसने विश्व के प्रमुख पुस्तकालयों से संबंध बनाकर किताबों का डिजिटलीकरण कर लिया है।
—जे का ऐ भइया, डिजटलीकरन?
—अरे चचा, इंटरनेट पर अब स्थान की कोई समस्या नहीं रही। लाखों-करोड़ों क्या अरबों-खरबों पुस्तकें नेट पर चढ़ाई जा सकती हैं। अंग्रेज़ी तो अंग्रेज़ी सारी भारतीय भाषाओं के लिए ऐसे सॉफ्टवेयर आ गए हैं कि बड़ी आसानी से पुस्तकें नेटालोडित की जा सकती हैं। एक होता है ओ.सी.आर., किताब स्कैन करी और टैक्स्ट में बदल गई। टाइप करने के झमेले से बचे। सत्तर लाख किताबें बिना प्रकाशकों और लेखकों की अनुमति के लाइब्रेरियों से सांठंगांठ करके गूगल ने चढ़ा दीं और बना दी गूगल लाइब्रेरी। प्रकाशक हैरान, लेखक दुखी। जब तक पता चलता तब तक न जाने कितने लोगों ने वहां से डाउनलोड कर लीं किताबें। और एक बार किताब गई तो गई, फिर उसकी कितनी अवैध कॉपी बनेंगी राम जाने। चार देशों कनाडा, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने प्रतिरोध किया। अंग्रेज़ी के बहुत सारे लेखकों ने आपत्ति दर्ज कराई तो इनके साथ गूगल ने कोई सैटिलमेंट कर लिया।
—और बाकी देस?
—बाकी देश सो रहे हैं। अपना भारत तो ऐसा देश है जहां आप जानते ही हैं कि कॉपीराइट या बौद्धिक संपदा जैसी किसी चीज़ के लिए कोई सम्मान नहीं है। प्रौपर्टी वही है जो दिखाई दे। हाथ का कंगन प्रौपर्टी है और ज़मीन-जायदाद प्रौपर्टी है। अपने यहां बौद्धिक सम्पदा कोई सम्पदा नहीं है, जबकि शक्तिशाली देशों में बौद्धिक सम्पदा को काफी महत्व दिया जाता है। शायद उनकी शक्ति बढ़ी भी इसीलिए है, चूंकि उन्होंने इंटैलैक्चुअल प्रौपर्टी को प्रौपर धन-मान दिया। हमारे यहां कोई एक लेखक बता दो जो केवल लेखन के बलबूते अपनी रोजी-रोटी चलाता हो।
—सो तौ ऐ!

वहां राउलिंग का दिमागी रोलर चला, हैरी पॉटर का चक्का घूमा और बन गई विश्व की सबसे अमीर औरत। हमारे यहां ये बहुत दूर की कल्पना है चचा। लेखक रोता है कि प्रकाशक पैसा नहीं देता। प्रकाशक रोता है कि किताबों की ख़रीद बन्द हो गई है। फिर भी किताबें धकाधक छपती हैं। किताबें छापना आसान भी हो गया है, कठिन होता जा रहा है बेचना, क्योंकि अब प्रकाशक आए हैं गूगल जैसी बड़ी व्हेल मछली की चपेट में। पुस्तकों के डिजिटलन या डिजिटलीकरण से खलबलन या खलबलीकरण हो रहा है। लेखक-प्रकाशक अब निकट आने को बाध्य हैं। प्रकाशक पारदर्शिता नहीं रखेंगे तो नुकसान होगा। साइबर स्पेस के जंगल में अभी कानूनविहीन मंगल है। उधर पाठक, श्रोता, दर्शक को लगभग मुफ्त का माल नेट पर मिल जाएगातो वह दूकान पर क्यों जाएगा! देख लेना चचा, बहुत जल्दी सारा ज्ञान-मनोरंजन बाज़ार मोबाइल फोन में समा जाएगा।
—अच्छा जी!
—मोबाइल गर हाथ में, तो लाइब्रेरी साथ में। लेखक-प्रकाशक टापो, अपना रस्ता नापो! छिन गई तुम्हारी जगह, ओम गूगलाय नम:।

Wednesday, December 01, 2010

थ्री टी से टी थ्री तक

-चौं रे चम्पू! एक हफ़्ता में बनारस, पटना, रांची, मुंबई, रायपुर, आगरा, अरे घर में टिकै कै नायं?
-चचा, पाँव में चक्कर है। आपके चम्पू का नाम ही ऐसा है। सभी जगह हवाई जहाज से गया। आगरा बाई रोड, और सिर्फ बनारस से पटना रेल से गया। पिछले दिनों जब से दिल्ली में टर्मिनल थ्री खुल गया है, सुबह या शाम की सैर हो जाती है। सुबह-सुबह की फ्लाइट से जाओ, बोर्डिंग गेट तक डेढ़ दो किलोमीटर की पद-यात्रा करके पहुंचो। ऐसे ही लौटने में। क्या दिव्य टर्मिनल बनाया है चचा! दुनिया भर के हवाई अड्डे देखे, अपना टी थ्री भी कम नहीं है।
-मजा आय रए ऐं तेरे! पहलै जातौ ओ बसन में, रेलगाड़ीन में, अब उड़ै हवाईजहाजन में।
-चचा, तीस-पैंतीस साल पहले रेल में संघर्ष और इंसानी सम्पर्क का जो आनन्द था वह इस हवा-हवाई दौर में नहीं है। अब इंटरनेट और सहयोगी सारा काम कर देते हैं। कविसम्मेलनों का सफर सामान्य थ्री टी यानी थ्री टायर से शुरू हुआ था और टी थ्री यानी टर्मिनल थ्री तक आ गया। थ्री टायर में लकड़ी के फट्टे होते थे, गुदगुदी सीट नहीं होती थीं। बुकिंग क्लर्क ने कह दिया कि जगह नहीं है तो मानना पड़ता था, लेकिन पिछवाड़े से एजेंट के ज़रिए टिकिट मिल जाती थी। आरक्षण न मिले तो पांच रुपए में कुली-कृपा से जनरल बॉगी में किसी भी बर्थ पर अंगोछा पड़ जाता था। कुली कौशलपूर्वक खिड़की से अन्दर कर देते थे। कई बार आपका धड़ अन्दर, पैर बाहर, अटैची बीच में। अन्दर पहुंच कर ऐसा सुख जैसे कोई किला फतह कर लिया हो। खिड़कियों से ठंड में ठंडी और गर्मियों में गर्म हवा आती थी। सुविधाएं आईं होलडोलबिस्तर युग में।
—बिस्तर युग की बात बिस्तार ते बता।
—बर्थ के साइज़ का एक ऐसा होलडोल आता था चचा, जिसमें फोम लगी रहती थी। दोनों ओर खांचे। सिरहाने की तरफ़ कविता की डायरी, लेखन-डाक सामग्रीऔर फूंक वाला तकिया और दूसरी तरफ़ चादर-कम्बल और खाने का टिफिन। दो बक्कल वाली चमड़े की छोटी सी अटैची में कपड़े-लत्तेऔर मुख-मंडल सुधारक सामग्री। पानी की बोतल पर चढ़ा रहता था कम्बल का टुकड़ा ताकि पानी ठण्डा रहे। राजसी ठाठ होता था, क्योंकि डिब्बे में हमारे जैसा होलडोल किसी के पास हुआ ही नहीं करता था। अगल-बगल ईर्ष्या की लहरें उठती थीं। देखो हम लकड़ी के फट्टे पर पड़े हुए हैं और पट्ठा गुदगुदे गद्दे पर मौज कर रहा है। अब हवाई जहाज में फ्रिज से निकली हुई ठण्डे पानी की बोतलों में वह मजा ही नहीं है जो उस झरी के पानी में आता था। टी.टी. से संवाद का अलग मजा। बर्थ के लिए उसके पीछे ऐसे भागते थे जैसे गैया के पीछे बछड़े लगे रहते हैं। दूध दे दे मैया, सीट दे दे भैया।
—टी.टी. कवीन की मदद तौ करते हुंगे?
—कवि हैं, जानने के बाद कुछ तो खुश हो जाते थे। अनेक टीटी स्वयं कवि होते थे, बिना पैसे लिए बर्थ भी दे देते थे। कोई-कोई खड़ूस टकरा जाता था, मैं क्या करूं कवि हैं तो? हर कोई, कोई न कोई काम करता है। वहां से पैसा नहीं लाओगे क्या? हम समझ जाते थे, निगाहों-निगाहों में वह आश्वस्त हो जाता था, बर्थ मिल जाती थी। एक बार मैं और सुरेन्द्र शर्मा कोलकाता से आ रहे थे। हर हालत में दिल्ली पहुंचना था। टी. टी. के लिए दस-पन्द्रह रुपए काफी हुआ करते थे। सुरेन्द्र जी ने बंगाली बाबू को सौ का नोट थमाया, दादा, दो बर्थ का इंतज़ाम कर दो। दादा बोले खुल्ला नहीं हैं, छुट्टा देओ। सुरेन्द्र जी ने कहा पूरे रख लीजिए। सौ का नोट देख कर बंगाली बाबू घबरा गया। कहने लगा, कौमती देओ, कौमती देओ, रेलवे में चौलता, पर इतना नईं चौलता, कौमती देओ! चचा, उस समय भ्रष्टाचारी में भी एक आनुपातिक ईमानदारी हुआ करती थी। आटे में नमक के बराबर लिया जाता था। आज टाटा का नमक रह जाता है, आटा गायब हो जाता है। लेने वाला टाटा भी नहीं करता। थ्री टी का जमाना टी थ्री से अच्छा था।
-जनरल बौगी आज ऊ लगी भई ऐं। फट्टा वारी! हिम्मत ऐ तौ लग लाइन में!
—चचा, तपस्या का कुछ तो फल मिले, अब लाइन में नहीं ऑन-लाइन रहने दो!

Thursday, November 25, 2010

तड़पती हुई तड़प

—चौं रे चम्पू!हाथ में इत्ती पर्चीन्नै लिए घूम रह्यौ ऐ, का ऐ इन पर्चीन में?
—चचा, मैंने अपने मुखपुस्तक यानी फेसबुक के दोस्तों के बीच ऐसे ही मन की एक बात लिख कर पोस्ट कर दी थी। जो जवाब आए उनकी ये पर्चियाँ बना लीं। दरअसल, उस वक्त जो मैं सोच रहा था, दोस्तों को यूँ ही लिख कर बता भी दिया, ’कुछ लिखने की तड़प है, किस विषय पर लिखूँ?’ एक घंटे के अंदर साठ-सत्तर सलाहकार सामने आ गए। इतनी तरह की सलाह मिलीं कि यदि सबकी मान कर लिखना शुरू करूँ तो लिखने के लिए कम से कम सात जनम चाहिए। आभा दुबे और अरविंद कुमार ने कहा कि लिखने के लिए ‘लिखने की तड़प’ से अच्छा विषय कौन सा होगा? इसी पर लिखिए। अंशुमान भागवत कहते हैं कि ज़िंदगी के पन्ने पलटिए, लिखने को बहुत मसाला मिल जाएगा।
—सई बात कही।
—सही कही होगी, पर मैं तो फड़फड़ा कर रह गया। ज़िंदगी के कितने पन्ने फड़फड़ाऊँ कि कुछ निकाल कर लाऊं! इसके लिए तो अनेक महाकाव्यों या महा उपन्यासों की शृंखला लिखनी पड़ेगी। सात सौ शब्दों के कॉलम में क्या-क्या लिख सकता हूँ? ज़िंदगी के सफर में कितने लोग साथ आए, कब कौन कहाँ किस ओर मिला, किस छोर मिला, कितनी डोर टूटीं, कितनी जुड़ीं, कितनी राहें कब कहां और क्यों मुड़ीं, बताना आसान है क्या? पिछले हफ्ते टीवी पर एक पुरानी कव्वाली आ रही थी, हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने.... धुन दिमाग में चढ़ी हुई थी चार मिसरे मैंने भी गढ़ दिए!
—सुना सुना, हमाई तौ सुनिबे की तड़प ऐ।
—जब तलक साथ मज़ा देता जिंदगानी में, तब तलक राहगीर साथ चलते देखे हैं। उम्र भर साथ निभाने की बात कौन करे, लोग अर्थी में भी कंधे बदलते देखे हैं।
—भौत खूब, भौत खूब!और कौन से बिसय सुझाए?
—विनीत राजवंशी, आदि शर्मा, ज्योति शर्मा और राम अकेला ने कहा आम आदमी और करप्शन पर लिखिए। धीमान भट्टाचार्य, अनिरुद्ध तिवारी, प्रशांत कक्कड़ टू जी या आदर्श बिल्डिंग सोसायटी पर लिखवाना चाहते हैं। मनोज और हीरा लाल सुमन का कहना है कि टीवी पर बढ़ती अश्लीलता को विषय बनाया जाए। चेतन ने खुली छूट दे दी कि आप कुछ भी लिखिए हमें पढ़ने की तड़प रहेगी। अब चुनौती ये है कि चेतन की तड़प को कैसे मिटाया जाए। नवनीत पंत की पर्ची पर लिखा है कि फैशन बदल रहा है, बदलते फैशन के अनुसार खुद को कैसे बदला जाए इस पर कलम चलाइए। अरे भैया नवनीत! ज़िंदगी बिलोने के बाद मैंने भी ये नवनीत निकाला है कि नए फैशन के साथ चलने में ही सार है। अगर तुमने बदलाव और फैशन के सवाल पर बच्चों को कोसना शुरू किया तो वे तुम्हें पोसना और परोसना बंद कर देंगे। अकेले रह जाओगे, भूखे मर जाओगे, इसलिए बच्चों के सुर में सुर मिलाओ। अपनी बात भी कहो लेकिन उन्हें भरोसे में लाओ।
—बच्चन के सुर में सुर मिलाइबे में ई सार ऐ!
—सुरेखा की चिंता है की लेखनी बदनाम हो रही है क्योकि लोग अच्छा नहीं लिख रहे हैं। ठीक कह रही हैं सुरेखा। मुन्नी बदनाम क्यों हुई इसके सारे कारण तो नहीं जानता, लेकिन लेखनी क्यों बदनाम हो रही है, इसका थोड़ा-बहुत अंदाज़ा है। कोशिश करूँगा कि अपनी तरफ से लेखनी बदनाम न हो। मनोज गोसांई ने लिखा है कि तड़प है तो श्रृंगार पर लिखिए। ओम पुरोहित जी कहते हैं विषय विकार पर लिखिए। अंशुमान रस्तोगी ने सलाह दी कि जो समझ में आए वो लिखिए, स्वरूप जी ने ताना मारा कि क्या अब आप सर्वे कराने के बाद लिखा करेंगे? लेकिन अमरीका की रेखा जैन की सलाह सबसे बढ़िया लगी और मैं समझता हूं कि इससे बढ़िया कोई तड़प नहीं हो सकती। उन्होंने लिखा है कि जब बच्चे छोटे होते हैं तो उनकी तड़पती हुई आंखें मां को फ़ौलों हैं और जब बड़े हो जाते हैं तो मां की तड़पती हुई आंखें बच्चों को फ़ौलों करती हैं। सबकी सलाह सर माथे, पर मैं आज रेखा जी से सहमत हूं कि सच्ची तड़प अगर कहीं होती है तो मां के हृदय में होती है। इस तड़पती हुई तड़फ को सलाम!
—चल मां की तड़प पै ई लिख!

Wednesday, November 17, 2010

मानदेय या मान देय

—चौं रे चम्पू, तू भौत दिनान ते स्याम जी कूं टरकाय रह्यौ ऐ, उनके पिरोगराम में जावै चौं नायं?
—चचा, एक तो उनकी अकड़, दूसरे पारिश्रमिक के नाम पर ठैंगा। बुला कर जैसे अहसान कर रहे हों, ऊपर से उलाहना। अच्छा, हमसे भी लिफाफे की उम्मीद! हमने तुम्हारे पिताजी को कितनी ही बार अपने घर बुलाया, अच्छा भोजन कराया, उन्होंने कभी कोई तमन्ना नहीं रखी। ये लीजिए, पिताजी का संदर्भ देकर यह तीसरा वार कर दिया। चौथा, और सबसे धांसू और रौबदार प्रहार यह कि रिश्ते में तुम हमारे भतीजे लगे चम्पू। उम्र में मुझसे दो-तीन साल छोटे ही होंगे, पिताजी से दोस्ती का दावा करते हुए बन गए चाचा! मैं तो अब उनका फोन उठाता ही नहीं हूं।
—ऐसौ मत कर लल्ला! दिल के बुरे नायं स्याम जी।
—दिल तो दुखाते हैं! अपने व्यावसायिक आयोजनों में रिश्तों को भुनाते हैं और मुझे व्यावसायिक बताते हैं। मन कैसे करे जाने का? देखो चचा, या तो मिले चकाचक मानदेय या सामने वाला पर्याप्त मान देय। अरे, हमें हमारा बाज़ार भाव ना दे तो कम से कम भावना दे। ये क्या कि सिर्फ उलाहना दे।
—चल जैसी तेरी मरजी, हाल-फिल्हाल कहां गयौ ओ? मानदेय वारी जगै कै मान वारी जगै?
—पिछले तीन-चार कार्यक्रम तो मान-सम्मान वाले ही थे, लेकिन सब जगह आनंद आया। काका हाथरसी पुरस्कार समारोह में कवि प्रवीण शुक्ल को सम्मान दिया गया, वहां मैंने काका जी पर एक पावरपॉइंट प्रस्तुति दी। उसमें मेहनत का मज़ा मिला। एक जगह कम्प्यूटर में हिंदी को लेकर व्याख्यान दिया, सार्थकता-बोध हुआ और सुकून मिला! एक समारोह में मुझे सम्मानित किया गया था ‘किशोर कुमार मैमोरियल क्लब’ की ओर से। स्मृति-चिन्ह के रूप में हिज़ मास्टर्स वॉइस वाला पीतल का ग्रामोफोन भोंपू मिला। लिफ़ाफ़ा कहीं नहीं मिला, गांठ का धन ही लगा, पर ख़ुशियों को इजाफ़ा मिला। उस कार्यक्रम में कुछ किशोर और युवा गायकों से किशोर के सुरीले और चटपटे फिल्मी गीत सुनने को मिले।
—कमाल कौ गायक हतो किसोर कुमार।
—किशोर कुमार की खण्डवा से उठती हुई आवाज़ सीधे अन्दर जाती है और हमारे हृदय के हर तार को छेड़ कर अंदर के खण्ड-खण्ड पाखण्ड को दूर कर देती है। कहते हैं कि वे स्वयं संगीत-शास्त्र के ज्ञाता नहीं थे, पर बड़े-बड़े शास्त्रीय संगीतज्ञ उनकी नैसर्गिक क्षमता का लोहा मानते थे। अखण्ड हंसी बिखराने वाले किशोर कुमार ख़ुद कितने खण्ड-खण्ड थे, ये बात भी जानने वाले जानते हैं। तीन पत्नियां एक-एक करके छोड़ गईं, क्योंकि उन्हें वे लगातार नहीं हंसा पाए। फक्कड़ थे तो अक्खड़ भी थे। तीनों भूतपूर्व पत्नियाँ अभूतपूर्व सहृदय अभिनेत्रियाँ और अपने समय की अभूतपूर्व सुंदरियां थी। रूमा देवी, मधुबाला और योगिता बाली। उन्होंने फक्कड़ से प्रेम किया, अक्खड़ को छोड़ गईं। हँसाने वाले को स्त्रियाँ पसंद करती हैं, लेकिन ये नहीं जानतीं कि सबको हँसाने वाला, खुद रोना और निकटवर्तियों को रुलाना भी अच्छी तरह जानता है। चौथी पत्नी भी सुंदर अभिनेत्री मिली, लेकिन तब तक किशोर दा ने अतीत से सबक लेकर अक्खड़ता छोड़ दी थी। पिछले हृदय आघातों के कारण जीवन भी जल्दी छोड़ दिया, हालांकि लीना के साथ जीना चाहते थे। लीना ने भी दिखा दिया कि निभाना जानती हैं।
—इमरजैंसी में किसोर के गीतन पै बैन चौं लगायौ गयौ ओ?
—पंगा ले लिया था उस वक़्त, संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल से। मान या मानदेय का ही चक्कर रहा होगा। संजय के पांच-सूत्री अभियान के सिलसिले में आयोजित एक कार्यक्रम में आने से मना कर दिया था, सज़ा भुगती डेढ़-दो साल। उनके संगीत-प्रेमियों ने उनका और उनकी अकड़ का साथ दिया। विद्याचरण शुक्ल को माफ़ी मांगनी पड़ी थी। हास्य कलाकार के अंतर्जगत को समझना हंसी-खेल नहीं है चचा। वह शास्त्र-ज्ञाता होने का दावा नहीं करता पर गहरा शास्त्रज्ञ होता है। अपमानित होने पर अकेले में रोता है। वह अपनी दुर्लभ क्षमता के पूरे पैसे वसूलता है लेकिन पैसे से मोह नहीं रखता। कौन जानता है कि किशोर दा ने कितने लोगों की कैसे-कैसे मदद की। कितने ही यार-दोस्तों के लिए मुफ्त में गा दिया। कोई भरोसा करेगा आज कि उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ बनाने में सत्यजित राय की अच्छी ख़ासी आर्थिक सहायता की थी।
—अपनी बता! स्याम जी के पिरोगराम में जायगौ कै इमरजैंसी लगवाय दऊं?
—श्याम जी को याद दिला देना कि विद्याचरण शुक्ल को माफी भी मांगनी पड़ी थी।

Tuesday, November 09, 2010

ओबामा के असहज की सहजता

—चौं रे चम्पू! ओबामा इंडिया आयौ और इंडोनेसिया गयौ, पिछले चार दिना में का खास बात देखी तैनैं?
—चचा, मैंने ओबामा के आगमन से लेकर प्रस्थान तक उसके असहज की सहजता देखी। आप जानते हैं कि विश्व में जब-जब महाशक्तियों ने कठोरता और कट्टरता का रास्ता अख़्तियार किया तब-तब उस समय की जनता और सच की शक्तियों ने बड़ी सहजता से उन्हें शिकस्त दी है। अपने देश का ही धार्मिक इतिहास देख लो, वर्ण-व्यवस्था और कर्म-कांड को उस समय के सहजयान, सहजयोग और सहज संप्रदायों ने सहजता से परास्त कर दिया। शक्तिशाली वैष्णवों से भी एक सहजिया वैष्णव संप्रदाय निकल आया था।
—तू कहनौ का चाहै चंपू?
—ओबामा को सहजता की ताकत मालूम है चचा। यात्रा में सब कुछ कितना प्रायोजित रूप से सहज दिखाई दिया। उसका आगमन जिस असहजता के कारण हुआ, वह पिछले कुछ सालों में अपने देश के युवाओं और अपनी अर्थ-व्यवस्था को देखकर उसके अन्दर पैदा हुई । पूरी दुनिया पर दादागिरी चलाने वाला अमेरिका बदला नहीं है चचा। वैसा का वैसा है। हमसे दसियों गुनी आर्थिक ताकत, हमसे बहुत कम आबादी, प्रति व्यक्ति वहां की आय हमारी प्रति व्यक्ति आय से कई गुना ज़्यादा, फिर भी ओबामा असहज हो गए। उन्होंने हमारे देश को नौजवानों के देश की तरह देखा। हमारे बच्चों की तेजस्विता देखी। कौन सा ऐसा क्षेत्र है जहां हमारे युवाओं ने कुछ करके न दिखाया हो। पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिलीं, घनघोर गरीबी है, उसके बावजूद अच्छे से अच्छा करके दिखाया है, क्योंकि चुनौतियां अब राष्ट्रीय नहीं रहीं, अंतरराष्ट्रीय हो गई हैं। ज्ञान का ख़ज़ाना केवल अमरीकियों के लिए खुला हो, अब ऐसा नहीं है।
—तौ अब कैसौ ऐ रे?
—ज्ञान हमारे बच्चों के लिए भी अब सहज उपलब्ध है। इस समय अमरीकी युवा में अपने ज्ञान के खज़ाने के प्रति उतना आकर्षण नहीं है जितना हमारे बच्चों में उस ज्ञान के प्रति है। दूसरी बात ये कि आतंक के घनघोर साए में जी रही दुनिया के लिए आज रास्ता दिखाने वाला कौन सा अंतर्तत्व है... तुम्ही बताओ चचा!
—अब प्रवचन तू दै रह्यौ ऐ, तौ तू ई बता। हम जे समझैं कै रस्ता गांधी ऐ।
—बिल्कुल ठीक कहा चचा। देश में कितने ही महात्मा गांधी मार्ग हैं, एक महात्मा गांधी मार्ग पर उन्होंने उतार दिया अपना एअरफोर्स वन विमान। ओबामा को अहिंसा और मानवता के गांधीवादी विचार आकृष्ट करते हैं। यह भाव ओबामा के अन्दर का असहज नहीं, एक सहज भाव है। वह संघर्षों से उठकर ऊपर आया है इसलिए भी पुराने राष्ट्रपतियों की तुलना में ओबामा में गांधी के प्रति एक भावात्मक अनुराग है।
—फिर असहज के सहज वारी बात कहाँ गई?
—चचा, इस बात को समझते हैं अर्थशास्त्री और कूटनीतिज्ञ। अपनी वाणी में ओबामा ने न तो बड़बोलापन दिखाया, तोतलापन। न वह कहीं भटका, न अटका। पाकिस्तान के बारे में भी संयम के साथ बोल गया सो बोल गया। मुस्कान बांटी। अफ्रीकी लय-ज्ञान ओबामा दंपत्ति को है। वे बुश की ठसक नहीं, अन्दर की थिरक रखते हैं। सबसे ज़्यादा सुरक्षा-परवाह के साए में बेपरवाह और लापरवाह से दिखे। उसकी ये ओढ़ी हुई सहजता अगर समझ में आ जाए तो हम अमरीका के आज के मनोविज्ञान को समझ सकते हैं। दो बड़ी इमारतें धंस गई थीं। उतने ही गहरे धंस गई दहशत अमरीकियों के मन में। समुद्र तटों पर स्वछन्द किलोल करने वाली प्रजाति आतंकवाद की गुलेल से घबरा गई और उसने देखा कि हम पड़ोसियों के दुर्भाव के बावजूद अपनी सद्भावना नहीं छोड़ते। ये बात ओबामा की समझ में आ गई।
—तेरी समझ में और का बात आई?
—ओबामा बचपन से ही उल्टे हाथ से ज्यादा काम करते रहे हैं। उन्होंने ज़्यादातर उल्टा हाथ हिलाया। उल्टे हाथ से मनमोहन सिंह का कंधा थपथपाया। उल्टे हाथ से ही ताज होटल में शहीदों के लिए श्रद्धांजलि लिखी। उल्टे हाथ से लिखने का एक लाभ है चचा। लिखते वक़्त मुट्ठी ऊपर होती है, पंक्ति दर पंक्ति जब वो लिखता जाता है तो ऊपर उसने क्या लिखा, कोई देख नहीं सकता। लिखाई मुट्ठी के नीचे छिप जाती है। वैसे उसकी थिरकती हुई कामनाओं, शांति की प्रस्तावनाओं और मिलन की भावनाओं से कौन खुश नहीं होगा, बस हमें छिपी हुई इबारतों को समझना होगा।
—लल्ला, तू भी सहज है जा, असहजता में का धरौ ऐ?

Saturday, November 06, 2010

उसल, मिसल और टीआरपी

—चौं रे चम्पू! मुंबई है आयौ? का पकवान उड़ाए वहां पै?
—चचा,मुंबई की ख़ास चीज़ें खाईं, जैसे, उसल, मिसल और टीआरपी।
—उसल, मिसल का होयं? और जे टीआरपी तौटैलीवीजन वारेन की कोई चीज ऐ!
—ठीक कह रहे हो चचा! उसल में सफ़ेद मटर होती है, मिसल में नमकीन सेव मसल कर डाले जाते हैं। टीआरपी का मतलब है तीखा रगड़ा पेटिस। ये सब महाराष्ट्र के पुराने खाद्य हैं, जिनसे वहां के श्रमजीवी अपना दिन का काम चलाते हैं।टेलीविज़न की टीआरपी भी तीखा रगड़ा पेटिस ही है। कार्यक्रम में जितना तीखा डालोगे, रगड़ा मारोगे और पेटियां उतार दोगे, उतनी ही तुम्हारी टी.आर.पी. बढ़ जाएगी। इतना तीखा मसाला कि आंखों से आंसू निकल पड़ें। वे आंसू भावनाओं के कारण तो निकलेंगे नहीं। मिर्च के कारण निकलेंगे। किसी को क्या पता कि चैनलों द्वारा अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए ये मिर्च दर्शकों की आँखों में झोंकी जा रही है। धारावाहिकों में नकली आँसू तो चलो ठीक हैं, कहानी की माँग है।रिएलिटी शोज़ में आँसू किस बात के? तुम्हारा बच्चा जीत गया या हार गया, दर्शकों में बैठे माता-पिता से कहा जाता हैआंसू निकालो, खामखां निकालो। ग्लिसरीन आंखों में डाल देते हैं। आंसू चाहिए आंसू। वो भी धांसू!
—अच्छा!
—और नहीं तो क्या!जनता को तीखी भावनाओं की लपेट में लेना है। दूसरी चीज़ रगड़ा। रगड़ा-झगड़ा जब तक नहीं होगा, तब तक व्यूवर कहां से मिलेगा। तीसरी पेटिस, कमर से पेटियाँ भी उतार दो। नंगई ज़िन्दाबाद!इधर स्वयंवर के ड्रामे के बादन्याय का नया अखाड़ा खोला गया है। उसमें पहले से तैनात सिक्योरिटी गार्ड भी रहते हैं। यानी,यह स्क्रिप्ट का अंग है कि झगड़ा होना ही होना है। योजनाबद्ध तरीके से मां-बहन की गाली दोगे और उसकी जगह बीप डाल दोगे, गाली तो समझ में फिर भी आएगी। मनुष्य गाली-गलौज और जूतम-पैजार का तमाशा देखना बड़ा पसन्द करता है।
—हां,जब दो लोग लड्यौकरैं तौ मजा तौ आवै ई आवै।तमासबीन कह्यौ करें, और बाजै,और बाजै।
—लड़ाई जल्दी छूट जाए तो भी मज़ा नहीं आता। प्राचीन काल में रोमन साम्राज्य में ग्लैडिएटर लड़ाए जातेथे।
—जे ग्लैडिएटर कौन हते?
—इटली और आसपास के देशों में हज़ारों-हज़ार गुलाम थे। इतने सस्ते कि एक घोड़े की कीमत एक गुलाम की कीमत से दसियों गुना अधिक होती थी। रोमन लोग कौडियों के मोल इन गुलामों को खरीद लाया करते थे। तब कुछ रोमन सौदागरों ने धनी रोमन नागरिकों के मनोरंजन के लिए एक खेल निकाला। ग़ुलामों की लड़ाई का खेल। दो ग़ुलाम एक दूसरे को जान से मार देने तक लड़ाए जाते थे, जानवरों की तरह। रोमन इनके तमाशों को देखते थे, हंसते, खुश होते थे और खून निकलता देखकर तालियां बजाते थे। जब उनमें से कोई एक खून से लथपथ, तडपता हुआ, एकाएक दम तोड देता था तो और अधिक तालियां बजाते हुए उछलते थे। इन्हीं लड़ने वाले ग़ुलामों को ग्लेडिएटर कहा जाता था जो अपने ही ग़ुलाम साथियों से बिना किसी शत्रुता के लड़ते थे। उनसे लड़ते थे, जिनसे वे प्यार करते थे। हिदायत ये होती थी कि एकदम से नहीं मार डालना है। धीरे-धीरे ऐसे मारो कि अगला तड़प-तड़प कर मरे। मरने में घंटा आधा घंटा तो लगे। जैसे-जैसे खून दिखाई देगा, वैसे-वैसे तालियां बजेंगी। तब भी चचा, एक एपिसोड होता था पैंतालिस मिनट का।
—भली चलाई!
—’स्पार्टकस’नाम के उपन्यास में गुलाम हब्शी ने कहा, पत्थर भी रोते हैं। वह रेत भी सुबकती है जिस पर हम चलते हैं। धरती दर्द से कराहती है, पर हम नहीं रोते। स्पार्टकस बोला, हम ग्लैडिएटर हैं। ग्लैडिएटर, ग्लैडिएटर से दोस्ती मत कर। हम इंसान नहीं हैं। हम इंसान के रूप में बोलने वाले औजार हैं। हब्शी ने कहा, क्या तुम्हारा दिल पत्थर का है स्पार्टकस?उसे जवाब मिला, मैं एक ग़ुलाम हूं और गुलाम के पास दिल नाम की कोई चीज़ नहीं होती। होती भी है तो पत्थर की। आजकल टी॰आर॰पी॰ की दौड़ में कलाकार पत्थर के बन गए हैं। मज़े के आगे दिल गायब है चचा!दर्शक को संवेदनशून्य करने के घिनौने षड्यंत्र। मुझे डर है कि टीवी पर जान से मारने का खेल शुरू न हो जाए। इंसान को ऊसल-मूसल में मसलो और टीआरपी के लिए सबसे तीखा रगड़ा पेटिस परोसो।
—आज धनतेरस पै ऐसी बात मत कर लल्ला!

Wednesday, October 27, 2010

आशाओं के विकल्पों में दो पाखी


—चौं रे चम्पू! चालीसमे सिरीराम कबसम्मेलन में हम तौनायं आ सके,कैसौ भयौ?
—अद्भुत था चचा,अद्भुत! चालीस वर्ष से वाचिक परम्परा की अच्छी कविता को जनता तक पहुंचाने का इस बार का प्रयास पिछले अनेक वर्षों की तुलना में अच्छा रहा। श्रोता भी शुद्ध कविता सुनने यहाँ इसलिए आते हैं क्योंकि न तो बहुत लतीफेबाजी होती है और न कविसम्मेलन में आए हुए दुर्गुणों के दर्शन होते हैं। हर साल देश के किसी एक भाग की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मंचसज्जा के रूप में रहती है। इस साल चूंकि रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक सौ पचासवीं जयंती चल रही है, इसलिए पृष्ठभूमि में बंगाल था। कविसम्मेलन के प्रारंभ में किसी एक महान दिवंगत कवि की कविताओं के पाठ की परंपरा भी यहाँ वर्षों से चल रही है। इस बार जब टैगोर कि ‘दुई पाखी’ कविता का भवानी दादा द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद सुनाया जा रहाथा, तब मुझे कवि प्रदीप की याद आई।
—टैगौर की कबता ते प्रदीप कैसै याद आए भइया?
—चचा उन्होंने एक गाना लिखा और गाया था, ‘पिंजरे के पंछी रे, तेरा दरद न जाने कोय। विधि ने तेरी कथा लिखी, आंसू में कलम डबोय। चुपके-चुपके रोने वाले, रखना छुपा के दिल के छाले। ये पत्थर का देस है पगले, कोई न अपना होय।’ पिंजरे के पंछी की व्यथा‘दुई पाखी’ नामक कविता में भी थी। प्रदीप अपने पंछी को चुप रहने की सलाह देते हैं, जबकि रवीन्द्र बाबू की कविता में दोनों पंछी चुप न रहने को लेकरसंवाद करते हैं। पिंजरे का पंछी पिंजरे की सुविधाओं का आदी हो चुका है,वनपाखी उन्मुक्त गगन में गाता है। इस कविता के दोनों पाखियों को प्रतीक के तौर पर देखें तो स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि और नवजागरण के दौर की मानसिकता सामने आती हैकि किस प्रकार कविता धीरे-धीरे परिवर्तन का एक औज़ार बन रही थी। भारतेंदु थोड़ा सा उनसे पहले हुए थे। उनके मन में भी पीड़ा थी कि अंग्रेज राज वैसे तो सुख साज है पर ख़्वारी की बात यह है कि धन विदेश चला जाता है। अंग्रेजों के राज में सुख साज का पिंजरा था, लेकिन धन बाहर चला जाता था यह बात उन्मुक्त गगन के पंछी ही जानते थे।
—बता का बात भई दोऊपच्छिन में?
—सोने के पिंजरे में पिंजरे का पंछी था और वन का पंछी था वन में, लेकिन न जाने क्या आया विधाता के मन में, कि दोनों का मिलन हुआ। बाहर का पंछीआज़ादी के गाने गाए और पिंजरे का पंछी रटी-रटाई बातें दोहराए। उन दोनों की भाषाओं में कोई तालमेल नहीं था। उपलब्ध सुखों का आदी व्यक्ति उस सुख को नहीं जानता जो पिंजरे के बाहर होता है। दोनों में डॉयलॉग हुआ। वन के पंछी ने कहा कि पिंजरे के पंछी चल आ जा हम वन में चलें! आकाश गहरा नीला है आ जा, अपने आप को बादलों के हवाले कर दे! लेकिन पिंजरे के पंछी ने कहा कि तू अंदर आ जा यहां सुख हैं, सुविधाएं हैं। सब कुछ मिलता है। भला मैं जंगली गीत कैसे गा सकता हूं? बादलों में बैठूँगा कहां? तू पिंजरे में आ जा! वन पाखी कहता है कि मैं उड़ूंगा कैसे?बहरहाल,दोनों पाखियों ने चोंचे मिलाई। एक-दूसरे को टुकुर-टुकुर ताका। एक बार मन भी किया वनपाखी का कि पिंजरे में आ जाए पर घबरा गया कि कोई बंद न कर दे पिंजरे की खिड़की, पिंजरे के पंछी को डराती थी मालिक की झिड़की।
—सही तस्बीर खैंची गुरदेब नै!
—सोने के पिंजरे में हमारा समाज आज भी सोया हुआ है। मध्य-वर्ग में लोन एक ऐसा सोने का पिंजरा है जिसमें कितने ही पंछी फड़फड़ाते हुए इन दिनों आत्महत्याएँ कर रहे हैं। आजकल ये विदेशी कंपनियां भी सोने का पिंजरा बनाकर क़ैद कर रही हैं हमारे जवानों को। जब भी ये कविता सुनो, नए नए अर्थ दे। और चाचा! उस कविसम्मेलन में पवन दीक्षित ने भी एक शेर सुनाया,‘उड़ने से मुझे रोकता सैयाद क्या भला! मैं ही तो क़ैद था मेरा एहसास तो नहीं।’ प्रदीप ने आंसुओं में कलम डुबाकर लिखा, पवन ने हालात की मजबूरी में डुबा करऔर रवीन्द्र ने आशाओं के विकल्पों में डुबा कर।
—एक सौ पचास साल है गए, रवीन्द्र की जे कबता तौ हाल की सी कबता लगै चंपू!

Tuesday, October 19, 2010

चंपू चक दे फट्टे

—चौं रे चम्पू! सबते मधुर और सबते ख़तरनाक चीज कौन सी ऐ, बता।
—परीक्षा लेते रहते हो चचा! अपने एकदम ताजा अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि सबसे मधुर और सबसे ख़तरनाक होती है भोर की बेला में यानी सुबह साढ़े चार से साढ़े पांच के बीच आने वाली चार सैकिण्ड की झपकी। संसार में सबसे ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं इसी काल में होती हैं। यह झपकी देर से किए गए भोजन और थकान के कारण आती है। इतनी मधुर होती है कि इसका रोकना असम्भव सा हो जाता है। परिणाम ख़तरनाक होते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ दो दिन पहले।
—का भयौ तेरे संग?
—मैं गया था कानपुर एक कविसम्मेलन में। कानपुर की देर तक कविसम्मेलन चलने की परम्परा देखते हुए मैंने अपना आरक्षण ए.सी. प्रथम श्रेणी में कराया, पांच बजकर अठारह मिनट पर चलने वाली स्यालदाह राजधानी से। कुछ कवियों को ढाई बजे वाली राजधानी एक्सप्रेस से राजधानी लौटना था। संचालक सुरेंद्र शर्मा का आरक्षण भी उसी में था, सो दो बजे ही कार्यक्रम समाप्त करवा दिया उनकी रेल ने। हमें थे तीन घंटे और झेलने। खैर जी, पांच बजकर पांच मिनट पर अपन प्लेटफॉर्म नम्बर वन पर थे। सूचना बोर्ड बता रहा था कि गाड़ी इसी प्लेटफॉर्म पर ही पांच बजकर तेरह मिनट पर आएगी। मैं अपनी अटैची और एक छोटा बैग अपने पैरों के पास रखकर एक बेंच पर बैठ गया। पांच बजकर नौ मिनट पर मुझे वही पांच सेकिण्ड वाली झपकी आई। इस बीच घोषणा हुई कि तेईस तेरह स्यालदाह राजधानी प्लेटफॉर्म वन के स्थान पर दो पर आ रही है और चचा मैं वह उदघोषणा सुनने से चूक गया। गाड़ी मेरे सामने समय पर आई और मेरे सामने ही निकल गई। कुली से पूछा कि है कोई गाड़ी दिल्ली के लिए? उसने बताया तीन नम्बर प्लेटफॉर्म पर खड़ी भुवनेश्वर राजधानी दिल्ली जाएगी। मैं लबड़-धबड़ सीढ़ियां चढ़ और उतर कर प्लेटफॉर्म तीन पर आया। अधिकांश डिब्बों के दरवाजे बंद थे। चार-पांच लोगों से घिरे एक टीटी महोदय झल्लाते हुए बता रहे थे कि किसी क्लास में कोई जगह नहीं है। वेटिंग टिकिट वाले चढ़ने की कोशिश न करें। अचानक एक नौजवान ने मेरा सामान लिया और पैंट्रीकार में ऊपर चढ़ गया। वह मेरा प्रशंसक एक वेटर था।
—बन गयौ तेरौ काम!
—हां चचा बन गया। पैंट्रीकार में रात्रिकालीन सेवाओं के बाद वेटरों के सोने के लिए पुराने थ्री टायर डिब्बे जैसे लकड़ी के फट्टे लगे होते हैं। मेरा प्रेमी वेटर मुझे बिठाकर टीटी महोदय को ढूंढने निकला। तभी एक दूसरा वेटर नींद से उठा और सामान सहित मुझे देखकर कहने लगा, नहीं-नहीं, यहां नहीं बैठ सकते, उतर जाइए। मैंने मजाक में कहा भैया मैं यात्री नहीं हूं पैंट्रीकार में नई-नई नौकरी लगी है, बताओ किस डिब्बे में चाय पहुंचानी है? वह कंफ्यूज हो गया। दूसरे वेटर उठे उनमें से दो-तीन मुझे पहचान गए। एक कहने लगा, सर ऊपर आराम से लेट जाइए। मैं ऊपर चढ़कर लकड़ी के फट्टे पर लेट गया।
—चम्पू! तेरी तौ चक दे फट्टे है गई।
—ए.सी. प्रथम श्रेणी में उत्कृष्ट कोटि की व्यावसासिक सेवाएं मिलती हैं, लेकिन पैंट्रीकार के फट्टे पर जो प्यार मिला उसका वर्णन करना मुश्किल है चचा। बीस साल पुराने दिन याद आ गए जब रेलगाड़ी में आरक्षण ना होने पर फट्टे पर बैठ कर रात निकाली जाती थी। लेटने को मिल जाए तो बल्ले-बल्ले हो जाती थी। मुझे ए.सी. प्रथम श्रेणी से ज्यादा मजा आया चचा। टीटी महोदय भी पुराने प्रेमी निकले। उनके हाथ में कानपुर से लिया हुआ अख़बार था जिसमें दीपप्रज्ज्वलन के समय मंत्री जी के साथ खड़े आपके चम्पू की तस्वीर भी थी। मैंने उन्हे टिकिट दिखाई और नई बनाने का अनुरोध किया। वे मुस्कुराते हुए बोले बना देंगे, पर अभी आप बी-सिक्स में मेरी बर्थ पर जाकर सो जाइए। मैंने कहा चला जाऊंगा, अभी अपने वेटर मित्रों का आतिथ्य प्राप्त कर लूं। मेरे लिए बिना चीनी की चाय आने वाली है। लेकिन चचा चाय आने से पहले ही मैं ऐसी मधुर झपकी का शिकार हुआ जो नींद में बदल गई। सपने में क्या कर रहा था पता है?
—बता!
—यात्रियों को भोजन परोस रहा था।

Wednesday, October 13, 2010

धुरी पर घूमेगा स्मृतियों का रिकॉर्ड

—चौं रे चम्पू! दिल्ली में आज खेल खतम है जांगे, कौन सौ खेल अच्छौ लगै तोय?
—चचा, खेलों में खेल होता है इश्क़ का खेल। फ़ारसी में इश्क़-बाख्तन कहा जाता है, हिन्दी में प्रेम-क्रीडा। प्रेम-क्रीडा के भेद-उपभेदों से विश्व-साहित्य भरा पड़ा है। ये खेल ऐसा है चचा जिसमें हार भी जीत का मज़ा देती है। इश्क में सारे खेल आ जाते हैं। कल्पनाओं में तैरना, एक-दूसरे के पीछे दौड़ना, भावनाओं की मुक्केबाजी, उलाहनों के भाले फेंकना, नैनों की तीरंदाजी, दिल की निशानेबाजी, दिमागी दांव-पेच की कुश्तियाँ, इश्क़ के मैदान में कौन सा खेल नहीं है, बताइए?
—हाँ, कुस्ती में हमारे जवान हारिबे वारे नायं। पर सही जवाब नाय दियौ तैनैं। जे उमर नायं इसक-फिसक को खेल खेलिबे की।
—चचा, आप अपने चिंतन में यहीं मार खा गए। इश्क़ तो मानवता का मूलाधार है। दिल कभी बूढ़ा नहीं होता। एक शेर सुना था, जो सौदा ने लिखा या नहीं, पता नहीं, पर बुढ़ापे की दिल-क्रीडा का एक उदाहरण है, ‘सौदा के पास सौदा अब कुछ रहा न बाकी, इक दिल ही रह गया है, लो छीन लो छिनालो’। उम्र के साथ इश्क का खेल स्मृतियों के खेल में बदल जाता है। कल्पनाएँ खिलाड़ी के लिए वाहन का काम करती हैं। कल्पनाएं स्मृतियों के मैदान को देश-काल से परे एक विस्तार देती हैं। आप कहीं से कहीं जाकर कोई सा खेल खेल सकते हैं। अतीत के ग्राउंड में बिना मीटर देखे दौड़ लगा सकते हैं। गंगाधर जसवानी की एक बहुत अच्छी कविता है ‘ग्रामोफोन’।
—सुना, कबता सुना।
—उन्होंने कहा था, बचपन में बिछुड़े शहर कीगलियों, सड़कों और रास्तों पर, अपने कदमों की सुइयों से मैंने अतीत के रिकॉर्ड खूब बजाए और जी भरकर, उन पर घूम-घूम कर, आँसू बहाए, सुना अतीत का संगीत। चचा, ज़रा ग्रामोफोन के बिम्ब के विस्तार में जाइए, रिकॉर्ड घूम रहा है, ध्वनियों की अनुगूँज तो तब उठती हैं जब घूमते रिकॉर्ड पर सुई रख दी जाए। सुई अपने ही स्थान पर काँपते हुए लगभग स्थिर रहती है। अपनी धुरी पर घूम रहा है स्मृतियों का रिकॉर्ड। कल्पना करिए कि अचानक रिकॉर्ड रुक जाता है। नहीं, नहीं, रिकॉर्ड नहीं रुक सकता चचा!ये स्मृतियों का रिकॉर्ड है। रुक जाएगा तो सुई दौड़ने लगेगी पाँव बनकर, रिकॉर्ड के हर गलियारे में।कल्पनाएँ कभी गतिशून्य नहीं होतीं। प्रवासी के पाँव गलियों, सड़कों और रास्तों पर सुई की तरह दौड़ लगाने लगेंगे।अतीत को आपादमस्तक गुंजाने लगेंगे। सब कुछ संगीतमय हो उठेगा।
—ग्रामोफोन रिकॉर्ड तो गायब ई है गए रे!
—मैगनेटिक टेप का ज़माना आया, फिर टेप से सीडी में आ गईं आवाजें और चित्रशालाएँ, सीडी से डीवीडी, अब है छोटी सी चिप। बचपन में सिनेमा टॉकीज के पिछवाड़े फिल्म के टुकड़े बीना करते थे। एक ही तस्वीर जरा-जरा से अन्तर से फिल्म की पट्टी में दिखाई देती थी। हम बच्चों ने रात के अंधेरे में तरह-तरह के प्रयोग किए। फिल्म के पीछे से टॉर्च मारते थे, दीवार पर बिम्ब बनाने की कोशिश करते थे। मैं आपको बता नहीं सकता चचा कि उस वक्त कितनी खुशी हुई थी, जब फिल्म के आगे डिप्टी साहब का मोटा चश्मा लगाने से दीवार पर धुंधली-धुंधली छायाएँ बन गईं थीं। रेडियो-टेलीविजन का विकास हमारे सामने हुआ। अब तो कंप्यूटर ने दृश्य-श्रव्य संचार के विकास में क्रांति ही ला दी है। कल राष्ट्रकुल खेलों का समापन समारोह है। वहाँ नवविकसित परम-चरम यंत्र देखने को मिलेगा ‘एयरोस्टेट’।
—हाँ, वा कौ बड़ौ हल्ला सुनौ ऐ रे!
—उद्घाटन समारोह में रंग जमा दिया था ‘एयरोस्टेट’ ने। भारत में पहली बार हीलियम गैस से भरे गुब्बारे का खेलों और मनोरंजन के लिए इस्तेमाल हुआ। सुनते हैं कि इस बार गैस तीस मीटर की ऊँचाई तक इस दृश्य-श्रव्य सुविधा-सम्पन्न गुब्बारे को उठा देगी। मामूली गुब्बारा नहीं है चचा। तीन सौ साठ डिग्री देखने वाले कैमरे लगे हैं इसमें। पैवेलियन में चल रहे इश्क़ के खेल भी दिखाएगा और खेलों से इश्क़ भी पैदा करेगा। बाद में धुरी पर घूमता रहेगा स्मृतियों का रिकॉर्ड! याद रहेगा ये गुब्बारा।
—चौदह के बाद हवा निकर जाएगी कै नायं?
—लोग आलपिन मारने से बाज़ आएं तब न! बहुतेरे तो पहले से ही हवा निकालने पर आमादा हैं।

Thursday, October 07, 2010

तुम रहो, हम रहें


तुम रहो
हम रहें
देश रहे!
नहीं कोई क्लेश रहे!

Wednesday, October 06, 2010

आनंद में ज़्यादा नहीं सूझता


—चौं रे चम्पू! चांदी कांसे के बाद बिंद्रा नै सौने की सुरूआत तौ करी। तू गयौ ओ उद्घाटन समारोह देखिबे?
—वहाँ तो नहीं गया चचा, पर कल्पनाओं में कहाँ-कहाँ नहीं गया चचा! अद्भुत से ऊपर कोई शब्द मिले तो बताऊँ। सन बयासी के एशियाड खेलों के दौरान भारत में रंगीन टीवी दिखा था और अब, दो हज़ार दस में, टीवी के ज़रिए पूरी दुनिया ने भारत की रंगीनी देखी। अतुलनीय भारत!इंक्रेडेबिल इंडिया!
—बगीची पै बिजरी ई नाय हती! देखते कैसै? पाँच दिना ते खम्बा गिरौ परौ ऐ, बिजरी वारेन कूं पइसा खवामैं तौ उठै!
—रहने भी दो चचा! माना कि बरसात और खुदाई के कारण पोल गिर गया था, लेकिन अब किसी बदइंतज़ामी की पोल मत खोलो। भारत की जय बोलो! हमारे अंदर आत्मविश्वास और भारत जगेगा तो हर तरफ का पोल जल्दी से जल्दी लगेगा। संक्रमण के इस काल में अंदर की बिजली मत बुझने दो चचा। भावना ही भावना की ज्योति जगाती है। ईमानदारी लादी नहीं जाती अंदर से आती है। ये भी तो देखो कि खेल से पहले ही सरिता विहार तक मैट्रो आ गई। काम हुए न पूरे। और भी हो जाएँगे धीरे-धीरे। मीडिया ने तो ऐसी छवि बना दी थी जैसे सब कुछ की ऐसीतैसी हो गई हो। खेलों की भी डैमोक्रेसी हो गई हो।
—जाकौ का मतलब भयौ?
—अरे मेरी एक कविता है न चचा, ‘अब मैं ये नहीं कहता कि मेरे ऐसीतैसी हो गई है, कहता हूँ मेरी डैमोक्रेसी हो गई है। अनुभव लेकर लूट-पाट का, रस्ता लेकर राजघाट का, गद्दी तक पहुँचे अपराधी, लोकतंत्र की डोरी साधी। डैमोक्रेसी चली ग्रीक से, भारत में चल रही ठीक से। अभी चौदह तारीख तक निंदा मत करो चचा।
—मंजूर! नायं खोलिंगे पोल, आगै बोल!
—नयनाभिराम नज़ारा था, पूरी दुनिया में छाया हुआ भारत हमारा था। चालीस करोड़ की लागत वाले ऐरोस्टेट ने जलवा कर दिया चचा। भारत की सम्पन्न संस्कृति की कुण्डलिनी जागृत होती हुई दिखाई गई और बोधि वृक्ष के नीचे परंपरा-प्रदान-प्रक्रिया सम्पन्न हुई। सात हज़ार कलाकारों ने आनंद के सातवें आसमान तक चढ़ा दिया। तालियों ने बता दिया कि दिल्ली दिल से शीला जी को और अपनी प्यारी हिन्दी को प्यार करती है। सबसे ज़्यादा तालियाँ तीन बार बजीं, एक बार तब जब बिंद्रा भारत का झंडा लेकर स्टेडियम में आए, दूसरी बार तब जब शीला जी नाम लिया गया और तीसरी बार तब जब राष्ट्रपति महोदया ने अपने भाषण के अंत में हिन्दी बोली। मीडिया ने तो खेल गाँव के बिस्तर पर सोता हुआ कुत्ता दिखाया था। दिखाए थे अपनी निंदाओं के पंजों के निशान। वह सब कुछ क्यों नहीं दिखाया जो उद्घाटन समारोह में अचानक दिखा। क्या वह बिना तैयारियों के हो गया था? अब सबके सुर बदल गए हैं। हमें अपनी सिक मानसिकता से निकलना होगा। गरीबी, बेरोज़गारी, असमानता और अज्ञान से पूरी दुनिया जूझ रही है। वह दिन भी आएगा जब हमारे देश के सभी मानव सुखी, सुंदर और शोषणमुक्त होंगे।
—तू तौ समारोह के सावन में अंधौ है गयौ ऐ लल्ला!
—हो सकता है चचा! लेकिन मुझे सन सतासी में सोवियत संघ के मॉस्को में हुआ ’भारत महोत्सव’ का नज़ारा याद आ रहा है। भारत से दो हज़ार लोक और शास्त्रीय कलाकार गए थे। मैं दूरदर्शन की ओर से आँखों देखा हाल सुनाने गया था। लेनिन स्टेडियम की सजावट और तकनीक का कमाल देख कर सोच रहा था कि क्या कभी हमारे देश में भी इस स्तर के कार्यक्रम हो सकते हैं। तेईस साल पुरानी तमन्ना इस समारोह ने पूरी कर दी चचा। अंधा कहो या सूजता। आनंद में कुछ ज़्यादा नहीं सूझता।
—लोग खुस ऐं, जे बात तौ मानी जायगी रे।
—चचा, नन्हें उस्ताद केशव के तबले को प्रणाम! उसकी उंगलियों पर थिरकते हुए भविष्य को प्रणाम। समारोह को सफल बनाने वाले सारे लोगों को प्रणाम। अंजाने-अनदेखे प्रयत्नों को प्रणाम। गारे सने हाथों को, डामर सने पाँवों को, उन सबको प्रणाम, जिन सबने सड़कें, सुरंगें बनाईं कमाल की, दिल्ली में माया फैला दी फ्लाईओवर-मैट्रो के जाल की।
—हाँ माया कहाँ-कहाँ फैली, कौन जानै?
—चचा सब जानते हैं खेल खतम, पैसा हजम, लेकिन अभी कान में डालो कुप्पी, चौदह तक रखो चुप्पी।

Wednesday, September 29, 2010

साधना की अवधि पूरी हो गई

—चौं रे चम्पू! भौत याद आय रई ऐ नंदन जी की, उनकी सबते अच्छी पंक्ती कौन सी लगैं तोय?
—वे अक्सर सुनाया करते थे— ‘अजब सी छटपटाहट, घुटन, कसकन, है असह पीड़ा, समझ लो साधना की अवधि पूरी है। अरे, घबरा न मन!चुपचाप सहता जा, सृजन में दर्द का होना ज़रूरी है।’
—जे बात उन्नैं सिरजन के बारे में कही कै अपने बारे में?
—चचा! उन्होंने अपनी ज़िंदगी और अपने सृजन में कोई अंतर नहीं किया। लोग कुछ भी कहें, कुछ भी मानें, उन्होंने अपनी साधना को अवधि देने में कोई कमी नहीं की। जिस दिन वे गए उस दिन उन्हें दिनेश मिश्र जी की गोष्ठी में आईआईसी आना था, उससे एक दिन पहले रूसी सांस्कृतिक केंद्र के एक कार्यक्रम में जाना था। बारह अक्टूबर के लिए हिंदी अकादमी को हां भरी थी। साधना की अवधि जल्दी पूरी हो गई। अभी दो साल पहले जब उनका पिचहत्तरवां जन्म-दिन मनाया गया तो कई लोगों का मानना था कि उन्हें पिचहत्तर का होने का कोई अधिकार नहीं है। लगते ही नहीं थे साठ से ज़्यादा। काम इतना करते थे जैसे तीस-चालीस के हों। पिछले दो साल में ही अस्सी के से लगने लगे।
—बो अपनी तकलीफन पै ध्यान नायं देते लल्ला!
--ठीक कह रहे हो चचा! डायलिसिस की मशीन से सीधे उठकर कार्यक्रमों में पहुंचने का सिलसिला वर्षों से चल रहा था। न अपनी तकलीफ़ों का गायन करते थे न कभी मदद के लिए गुहार लगाते थे, ज़माने के दर्दों को गीतों और कविताओं में ढाल कर ज़रूर गाते थे। सही बात के लिए अपने आत्मीयों की मदद के लिए सही समय पर हाज़िर। वे कहते थे कि कविता लिखना मेरा जीवंत और मानवीय बने रहने की प्रक्रिया का ही एक अंग रहा है। आदमी बने रहना मेरे लिए कवि होने से बड़ी चीज़ है। बिरले इंसान होते हैं ऐसे। डॉ. कन्हैया लाल नंदन जैसे।
—आड़े बखत पै तेरौ साथ निभायौ उन्नै, मोय याद ऐ।
—समझिए, साढ़े तीन दशक से उनका सान्निध्य सुख मिला और इस अंतराल में मैंने उन्हें एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी और उदारमना व्यक्ति पाया। वे वाचिक परंपरा से जुड़े होने के बावजूद साहित्यिक हल्कों में भी स्वीकार किए जाते थे। सबसे बड़ा काम उन्होंने जनमानस के एक सांस्कृतिक शिक्षक के रूप में किया। उन्होंने अच्छी कविता सुनने का सलीक़ा पैदा किया। वे एक सांस्कृतिक, सामाजिक और सौन्दर्यशास्त्रीय मनोवैज्ञानिक थे। बच्चों की पत्रिका पराग से लेकर बुद्धिजीवियों की पत्रिका दिनमान के संपादन के अलावा उन्होंने संचार, संवाद और संप्रेषण की दुनिया में क्या-क्या किया सब जानते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि उनका मित्र-परिकर बहुत बड़ा था। अहंकार से शून्य थे चूंकि जनता से सीधे जुड़े हुए थे। अहंकार तब आता है जब आप अपने कोटर में बन्द होकर अपने आपको बहुत बड़ा साहित्यकार मानने लगते हैं। मैं जानता हूं कि लोकमन का, सांस्कृतिक उत्थान की चाहत के साथ, रंजन करना एक चुनौती की तरह होता है। इस दुरूह कार्य को वे बड़े संयम और गंभीरता से करते थे। संप्रेषण को मानते थे प्रमुख, लेकिन कठिन बिम्बों को भी बोधगम्य बनाने का कार्य उन्होंने मंच पर किया। मंच की कविता प्रायः सपाट सी हो जाया करती है, लेकिन उन्होंने सपाट पाट पर भी अपना घाट अलग बनाया और ठाठ से पूरा जीवन जिया। पूरे समय तक मंच पर रहते थे, ऐसा नहीं कि अपनी कविता सुनाई और चल दिए। वे सबको बहुत ध्यान से सुनते थे और सबसे बात करते थे। नए कवियों को न केवल प्रोत्साहित करते थे, बल्कि नया सीखने को भी सदैव तैयार रहते थे।
—नयौ सीखिबे कू कैसै तैयार रहते?
—कम्प्यूटर की ही लो चचा! उन्होंने बच्चों से सीखा। ‘जयजयवंती’ से उन्हें जो लैपटॉप मिला, यात्राओं में अपने साथ रखते थे। भारत में ऐसे बहुत कम हिंदी साहित्यकार होंगे जो पिचहत्तर पार करने के बाद कम्प्यूटर में दक्षता के लिए प्रयत्नशील रहे हों। मेरी उनसे कम्प्यूटर आधारित चर्चाएं खूब होती थीं। मुझसे बहुत स्नेह मानते थे। ठहाकों के, उल्लास-उमंग और विषाद के बहुत अंतरंग क्षण मैंने उनके साथ बिताए हैं। चचा। वे जो करते थे, पूरे मन से करते थे। उनका जाना मेरे लिए तो व्यक्तिगत रूप से बहुत ही बड़ा नुकसान है।
—तेरौ क, पूरी बगीची कौ ई नुकसान ऐ रे!

Wednesday, September 22, 2010

हिन्दी की हिन्दी अंग्रेज़ी की अंग्रेज़ी

—चौं रे चम्पू! हिन्दी पखवारे में हिन्दी की कित्ती हिन्दी करी तैनैं?
—चचा मज़ाक मत बनाओ। हिन्दी की हिन्दी से क्या मतलब है? माना कि आजकल अंग्रेज़ी की अंग्रेज़ी हो रही है, लेकिन अंग्रेज़ी की हिन्दी भी हो रही है और हिन्दी की अंग्रेज़ी भी हो रही है। कम्प्यूटर ने भाषाओं के विकास के रास्ते खोल दिए हैं। किसी नीची निगाह से न देखना हिन्दी को!
—तौ का हिन्दी को स्वर्ण काल आय गयौ?
—व्यंग्य मत करो चचा! सब कुछ तो जानते हो। लेकिन मान जाओ कि स्वर्ण काल भले ही न आया हो पर यदि हम चाहें तो हिन्दी का भविष्य स्वर्णिम बना सकते हैं।
—चल मजाक करूं न ब्यंग, बता का कियौ जाय?
—हिन्दी आज एक वैश्विक भाषा है और पूरे संसार में बोलने वाले लोगों की संख्या की दृष्टि से दूसरे नम्बर पर आती है। लेकिन अपनी हैसियत में किस नम्बर पर आती है! सच्चाई ये है चचा कि बहुत पिछड़ी हुई है, प्रगति के ग्राफ में बहुत नीचे है। विदेशी कंपनियां आती हैं, यहां हिन्दी चैनल चलाती हैं। चकाचक मुनाफ़ा कमाती हैं। मनोरंजन की दुनिया में हिन्दी के पौबारह हैं। लेकिन हिन्दी पठन-पाठन, रोज़गार, कारोबार में पौपांच भी नहीं है। विदेशी सॉफ्टवेयर कंपनियों ने हिन्दी के लिए एक से एक शानदार सॉफ्टवेयर बनाए, यहाँ आकर बनवाए, शोध कराई, आर.एन.डी. कराई, लेकिन उनकी दिक्कत ये है कि हिन्दी सॉफ्टवेर ज़्यादा बिकते ही नहीं हैं भारत में। कंपनियां समझने लगती हैं कि हिन्दी की भारत में ज़रूरत ही नहीं है।
—ऐसौ कैसै समझ सकैं?
—बिक्री चाचा बिक्री! बिक्री नहीं होती उनकी! हर उन्नत भाषा, प्रौद्योगिकी की नवीनतम खोजों का लाभ उठाती है। खुद को अपडेट करती है, लेकिन हमारी हिन्दी पुरानी पद्धतियों से ही चिपकी हुई है। हिन्दी के प्रकाशन जगत ने अभी तक यूनिकोड को नहीं अपनाया है।
—चौं नायं अपनायौ?
—नए उत्पाद ज़्यादा पैसे में ख़रीदने पड़ते हैं न! हिन्दी प्रकाशन के लिए पुराने सॉफ्टवेर नेहरू प्लेस से पचास रुपए में मिल जाते हैं तो नए के लिए पाँच हज़ार कौन खर्च करेगा? लाखों रुपए के कम्प्यूटर खरीद लेंगे, पर कुछ हज़ार के सॉफ्टवेयर नहीं खरीद सकते! कार तो ख़रीद लीं, पर चला रहे हैं चोरी की पेट्रोल से। अभी पिछले दिनों मैं माइक्रोसॉफ़्ट के एक सीनियर बंदे से मिला। उसने बताया कि जब भी उनका कोई नया भाषाई उत्पाद आता है, तो वो एक साथ कई सारी भाषाओं में उसको लॉंच करते हैं। चीनी भाषा में, जापानी में, कोरियन में, जर्मन में। विश्व की कुछ समुन्नत भाषाएं निर्धारित और निश्चित हैं कि उत्पाद को इन सारी भाषाओं में एक साथ लाया जाएगा। इन भाषाओं को वे कहते हैं फर्स्ट टीयर, यानी पहली श्रेणी की भाषाएं। दूसरी श्रेणी में उन भाषाओं को लेते हैं जहां ठीकठाक सा मार्केट है। मुझे वहां यह जानकर आश्चर्य हुआ कि टीयर सिस्टम में हिन्दी सबसे नीचे तीसरी श्रेणी में आती है। डिमांड होगी तभी तो बनाएंगे। सरकार उनके हिन्दी उत्पादों की मुख्य ग्राहक होती है। सरकार को ये लोग अधपकी सामग्री बेच कर मुनाफा कमा लेते हैं। सरकारी फाइलों में हिन्दी लालफीते से बंध कर घुटती रहती है।
—बता, का करैं?
--सबसे बड़ी ज़रूरत है जन-जागृति की। पढ़े-लिखे तबकों में यूनिकोड का प्रचार और प्रसार प्राथमिकता पर किया जाए। पूरे देश में यूनिकोड मशाल घुमा दी जाए। माँग बढ़ेगी तो सॉफ्टवेयरों की कीमतें अपने आप कम होंगी। यूनिकोड पर आधारित नए-नए फॉन्ट बनने चाहिए। पुस्तकों और समाचार जगत के प्रकाशकों को जब इसकी महत्ता समझ में आएगी तब बात बनेगी। माइक्रोसॉफ़्ट के साथ अडोबी और आईबीएम भी अपने उत्पादों को यूनिकोड समर्थित करें। अडोबी उदासीन है क्योंकि उसका पेजमेकर और फॉटोशॉप चोरी से इस्तेमाल होता है और वे भारत में कुछ नहीं कर सकते। भारत में कुछ चोरियाँ चोरी नहीं मानी जातीं। बौद्धिक सम्पदा की निजता को नीची निगाह से देखा जाता है। कॉपीराइट की ऐसी-तैसी!
—जे तौ चोरी और सीनाजोरी भई।
—कॉपीराइट नहीं है, कॉपी करने का राइट है चचा।

Wednesday, September 15, 2010

हिन्दी में देश की एकता का रस

—चौं रे चम्पू, कल्ल बिग्यान भबन में हिन्दी दिबस कौ समारोह भयौ, तू ग्यौ के नायं?
—गया था चचा! और आनन्दित नहीं परमानन्दित हो गया।
—इत्ती खुसी की का बात है गई रे?
—सबसे ज़्यादा ख़ुशी की बात ये रही चचा कि हमारे गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने अपना भाषण हिन्दी में शुरु किया। पूरा एक पैराग्राफ हिन्दी में बोला। क्या शुद्ध उच्चारण था चचा! ‘मैं राजभाषा को अंगीकार करने वाले कार्यालयों में उत्कृष्ट कार्यों के लिए सभी कार्मिकों को आभार ज्ञापित करता हूं।’ कुछ ऐसा सा बोल रहे थे। शब्दशः तो नहीं बता सकता पर एक कुशल हिन्दी ज्ञाता जैसा उच्चारण था। पिछले साल उन्होंने हिन्दी के समर्थन में अंग्रेज़ी में भाषण दिया था। पूरे सभागार में मायूसी छा गई थी। एक ओर तो हिन्दी का प्रयोग करने के लिए अनेक हिन्दीतर क्षेत्र से आए कर्मचारियों को पुरस्कृत किया गया दूसरी ओर अध्यक्ष महोदय बोल रहे थे अंग़्रेजी। किसी को यह बात पच नहीं रही थी कि वे ज़रा सी भी हिन्दी नहीं बोल सकते।
—बोलिबे में हिंचक रही होयगी लल्ला! समझ तौ पाते ई हुंगे! राजनीति कौ दबाब ऊ है सकै।
—कैसी भी हिचक क्यों न हो। हिन्दी दिवस पर हिन्दी न बोलना एक अपराध जैसा लगा था चचा। आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ के बान की मून ने हिन्दी बोल कर सबका मन जीत लिया था। इतनी तालियां बजीं थी कि शायद संयुक्त राष्ट्र संघ के उस सभागार में कभी न बजी हों। सच बताऊं चचा, पिछले साल कार्यक्रम के बाद विज्ञान भवन का भोजन अच्छा नहीं लगा। सभी के चेहरे पर एक कसक थी। वहां अधिकांश सरकारी कर्मचारी थे। खुलकर बोल नहीं सकते थे लेकिन गुपचुप चर्चा यही थी कि कम से कम एक वाक्य तो बोल देते हिन्दी में। हिन्दी दिवस की मर्यादा रह जाती। आपकी दूसरी बात मुझे ठीक लग रही है चचा। राजनीतिक मजबूरियां भी होती हैं। दक्षिण के अपने जनाधार की चिंता रही होगी। हालांकि उन्होंने गत वर्ष बातें हिन्दी के पक्ष में ही कही थीं, कही भले ही अंग्रेज़ी में हों। फिर भी चचा बातें मन को ठुकी नहीं। कार्यक्रम के बाद सरकारी कर्मचारी खाने में लग गए, यानी खाने की लाइनों में लग गए और मैं बिना खाए ही निकल आया।
—पिछली छोड़, अबकी बता!
—इस बार तो संयुक्त राष्ट्र संघ का सभागार याद आ गया। अपने अध्यक्षीय भाषण में जब चिदम्बरम जी ने कहा— मानयीय उपराष्ट्रपति महोदय! ’माननीय’ और ’महोदय’ सुनकर ही लोग झूम उठे। क्या तालियां बजीं चचा, बता नहीं सकते। अगले संबोधनों का मौका ही नहीं दे रहे थे। दे ताली और दे ताली। चिदमबरम सिर झुकाए मुस्कराते रहे। संबोधन श्रृंखला का पूरा वाक्य हिन्दी में सम्पन्न हुआ तो फिर से तालियों का ज्वार।
—दाबत उड़ाय कै आयौ कै नायं?
—चकाचक चचा! मीठे पर पाबंदी है लेकिन दो गुलाबजामुन खाईं और आइसक्रीम भी सपोट गया।
—पूरौ भासन हिन्दी में नायं दियौ न?
—पूरा भाषण तो हिन्दी में नहीं दिया। बीच में अंग्रेज़ी भी बोली। उतने भर के लिए हिन्दी के लोग बड़े उदार होते हैं। अंग्रेज़ी भी हमारे देश की भाषा है। उससे वैर थोड़े ही है। लेकिन भाषण का अंत फिर से हिन्दी बोल कर किया। दिल जीत लिया उन्होंने। मेरा दिल तो एक दूसरे कारण से भी जीत लिया।
—दूसरौ कारन बता!
—अपनी दुखती रग है चचा! यूनीकोड एंकोंडिंग प्रणाली। दस साल हो गए कम्प्यूटर पर इस प्रणाली को आए लेकिन हिन्दी है कि इसे हृदय से लगा नहीं पाई। उन्होंने यूनीकोड को सरकारी कार्यालयों में जब अनिवार्य रूप से अपनाने की बात कही तो जी खुश हो गया। गृहराज्य मंत्री अजय माकन द्वारा दिए गए आंकड़े भी पिछले वर्ष की तुलना में उत्साह बढ़ाने वाले थे। हिन्दी निरंतर बढ़ रही है चचा, लेकिन कुछ लोग हैं जो अंग्रेज़ी का हउआ दिखाने से बाज नहीं आते हैं। खाते हिन्दी की हैं, बजाते अंग्रेज़ी की हैं। खत्म हो जाएगी हिन्दी, खत्म हो जाएगी हिन्दी। कैसे खत्म हो जाएगी हिन्दी। लोग खत्म हो जाएंगे, आपस की लड़ाइयां खत्म हो जाएंगी, हिन्दी कहीं नहीं जाने वाली।
—और का अच्छी बात भई?
—अच्छी बातें तो बहुत हुई। एक बात अजय माकन ने कही मार्के की। वे बोले— जैसे फूल में छिपा रहता है मकरन्द उसी तरह हिन्दी में छिपा है देश की एकता का रस।
—बस्स! आगै मत बोल। मोय अजय की बात को रस लैन दै रे।

Tuesday, September 07, 2010

कौन सुनता विस्फोट

—चौं रे चम्पू! दिल और दिमाग में कौन जादा ताकतवर ऐ?
—दोनों ताक़तवर हैं, दोनों ही कमज़ोर हैं। चचा, जो इन दोनों को अलग-अलग मानते हैं वे गलती करते हैं। दोनों ही स्रोत हैं, दोनों ही धारा हैं। दोनों ही बांध हैं, दोनों ही एक-दूसरे का किनारा हैं। लोग समझते हैं कि दिल धड़कता है और दिमाग सोचता है, पर मामला उल्टा है चचा। दरअसल, दिमाग धड़कता है और दिल सोचता है, यानी दिल में एक दिमाग होता है और दिमाग में एक दिल। इसी से जिंदगी खिल-खिल जाती है और इसी से होती है कांटा किल-किल।
—लोग कह्यौ करैं कै दिल टूट गयौ।दिमाग टूट गयौ, चौं नांय कहैं?
—यही तो महान गलती है। दिल नहीं टूटता, दिमाग चकनाचूर होता है। दिमाग में सबसे ज़्यादा हिस्से होते हैं। उनमें बहुत सारे क़िस्से होते हैं। क़िस्से जब क़िस्सों से टकराते हैं तो तरह-तरह के घिस्से होते हैं, इसीलिए दिल के इतने नाम नहीं हैं जितने दिमाग के हैं।
—बता!
—बुद्धि, अक़्ल, भेजा, मगज़, मन, मस्तिष्क, दिमाग। ज्ञान, बोध, अंत:करण, मनसा, दीप, चिराग। ज़हन, शीश, मति, खोपड़ी, अंतर्दृष्टि, विवेक। समझ, चेतना, मनीषा, तेरे नाम अनेक। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि दिमाग का दायाँ हिस्सा असीम कल्पनाओं का पहाड़ और बहुरंगी भावनाओं-आस्थाओं का अखाड़ा होता है, जबकि बायाँ हिस्सा तर्क और गणित का पहाड़ा होता है। दिमाग चिंतन करता है दिल के अनुसार। उन स्मृतियों को संजोता है जो दिल को अच्छी या बुरी लगें। बेलगाम कल्पनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण भी करता है। दिमाग कोरा दिमाग नहीं होता, दिलात्मक दिमाग होता है, जो दिमागात्मक दिल की सुनता है। चीजें जब नियंत्रण से परे होने लगती हैं तब लोग उसे कहते हैं दिल और दिमाग की मुठभेड़। खोपड़ी घूम जाती है चचा।


—बगीची पे चंपी कराय लै!बादाम के तेल की। खोपड़ी तर, दिमाग ठीक!
—उससे कुछ नहीं होता चचा। बादाम का तेल दिमाग का भोजन नहीं है। दिमाग खोपडी के जरिए आहार नहीं पाता।
—जानी वाकर कौ चंपी वारौ गानौ याद ऐ?
—सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए, आजा प्यारे पास हमारे, काहे घबराए? चंपी तेल मालिश। इस गाने को ही लो। जो बात मैंने कही, ये गाना भी कहता है। सिर चकराना और दिल डूबना दोनों साथ-साथ कहे गए हैं। दोनों चीज़ें अंदर घटित होती हैं। चंपी बाहरी प्रयास है। जिसके पास दाम नहीं होंगे, बादामरोगन का इंतज़ाम कहाँ से करेगा? महँगाई के कारण उसका दिमाग और चकरा जाएगा, दिल और डूब जाएगा। दिल-दिमाग का भोजन न खोपड़ी के जरिए जाता है न मुख के। ये मामले हैं अंदरूनी सुख और दुख के। दिल-दिमाग का भोजन आँख-कान के ज़रिए जाता है चचा। आत्मीय छवियां दिखें, मनोनुकूल और मीठी बातें सुनने को मिलें तो बड़े-बड़े घाव भर जाते हैं, पर दूसरे का घाव भरने वाले शब्द बड़ी मुश्किल से निकलकर आते हैं। आजकल महानगरों में बढ़ रहा है पैसा और गुरूर। सब के सब मगरूर। मज़े लेते हैं, जब सामने वाला हो जाता है चकनाचूर। यह मज़ा उनके दिल-दिमाग को सुकून देता है। ताने और सताने में समय बिताने में आनंद आता है। उसी से अपनी ताक़त का अंदाज़ा होता है।देखा, हम किसी को कितना दुख पहुँचा सकते हैं। यह दुख पहुँचाने का भाव असीमित सुख देता है। आजकल हृदय रोगियों से कहा जाता है कि मनोचिकित्सक के पास भी जाओ। तुम्हारे अन्दर जो तनाव है, वही तुम्हारे दिल का घाव है, क्योंकि तुमने जो कुछ गुपचुप सोचा है, उसी में कैमिकल लोचा है।
—दिल और दिमाग तौ अब गड्डमड्ड है गए ऐं, पहले अलग-अलग हते। दिल आ जाय तौ दिमाग की ऐसी-तैसी। दिमाग में कोई बात बैठ जाय तौ भाड़ में जाय दिल।
—सही कह रहे हो चचा। ज़माने ने सब कुछ गड्डमड्ड कर दिया है। स्वार्थ, कैरियर, भविष्य-निर्माण, अनेकनिष्ठता का बुलडोजर जब किसी अंतरंग के दिल पर चलता है तो उसका दिमाग ही सहारा दे सकता है, वरना जाएगा काम से। ये दिमाग ही है जो दिल टूटने की आवाज नहीं होने देता। तरुण जी की पंक्तियाँ बड़ी अच्छी हैं, ‘एक चूड़ी टूटती तो हाय हो जाता अमंगल, मेघ में बिजली कड़कती, कांपता संपूर्ण जंगल। भाग्य के लेखे लगाते, एक तारा टूटता तो, अपशकुन शृंगारिणी के हाथ दर्पण छूटता तो। दीप की चिमनी चटकती, चट तिमिर का भय सताता, कौन सुनता विस्फोट, जब कोई हृदय है टूट जाता।
—अब आयौ ना लाइन पै!

Friday, September 03, 2010

बाबा ते काका दी हट्टी

—चौं रे चम्पू! और बता ना, चुप्प चौं है गयौ? नागार्जुन जन्म-सती समारोह की योजना आगै बढ़ा।
—चचा, मैं तो बता रहा था, आप ही उठकर चले गए।
—बता, बता और का का इंतजाम कन्ने परिंगे?
—का का इंतजाम! काका हाथरसी जी को भी बुलाना पड़ेगा! वे आ गए तो रौनक लग जाएगी। बहुत कम लोगों को पता होगा कि बाबा और काका की मुलाकातें उत्तरी दिल्ली के टैगोर पार्क में हुआ करती थीं। कामरेड ज़हूर सिद्दीक़ी की छत पर बाबा ते काका दी हट्टी लगती थी। बाबा रहते थे सुधीश पचौरी के फ़ौट्टी एट टैगोर पार्क में और काका रहते थे मुकेश गर्ग के टू फ़ौट्टी टू में। दोनों पैदल चलने के शौकीन। काका स्वास्थ्य के लिए नियमित रूप से सुबह शाम टहला करते थे। बाबा का तो वाहन ही उनके दो पैर थे। कोई बस न मिले तो ग्यारह नंबर की बस ज़िंदाबाद। काका को अपने स्वास्थ्य पर बड़ा गुरूर था। बाबा को छोटे-मोटे रोग घेरे रहते थे। दाढ़ी-मूंछ दोनों रखते थे। काका थोड़ी लंबी दाढ़ी रखते थे, बाबा की हल्की रहती थी। दोनों के बाल खिचड़ी थे। दोनों को निशात जी के हाथ की बनी काली दाल की खड़ी खिचड़ी पसंद थी।
—चल बगीची पै खीचरी ऊ बनवाय लिंगे। और बता!
—बाबा जो ओवरकोट पहनते थे उसकी डिजायन भी काली खिचड़ी जैसी ही थी। काका आमतौर से गरम शॉलों से बने कुर्ते पहनते थे। काका को सर्दी ज्यादा नहीं लगती थी जबकि बाबा की दुश्मन थी सर्दी।
—बगीची पै एक ओवरकोट और एक गरम कुर्ता टांग दिंगे।
—चचा, एक बात बताऊँ! बाबा ने जो सलेटी से रंग का ओवरकोट अंत तक पहना उसे जामा मस्जिद से खरीद कर आपका चम्पू लाया था, पच्चीस रुपए में। पैसे सुधीश या करण ने दिए होंगे। काफी दिन तक मेरे और बाबा के बीच में समझौता रहा कि कभी तुम पहन लो, कभी मैं पहन लूँ। कड़ाके की ठंड में जो बाहर जाएगा वो पहनेगा। बाबा को कमरे के अंदर भी कड़ाके की ठंड लगती थी। जब उन्होंने उतारकर टाँगना बंद कर दिया तो ओवरकोट उन्हीं का हो गया।
—बात चल रही है बाबा और काका की तू बीच में अपनी कहाँ ते ले आयौ?
—काका को दूसरों की उम्र पूछने का बड़ा शौक था। ज़हूर साहब की छत पर काका ने बाबा से भी उनकी उम्र पूछी थी। जब उन्हें पता चला कि बाबा चार साल छोटे हैं तो वे बच्चों की तरह खुश हुए। देखा, हो तो छोटे, पर काका से बड़े लगते हो। बाबा सहजता से उत्तर देते कि लोगों ने बाबा कहना शुरू कर दिया है तो बड़ा तो लगूँगा ही। दरअसल दोनों ही बड़े थे। दोनों शीर्षस्थ। दोनों कड़ियल और अपने-अपने सोच में अड़ियल। बाबा जनकवि थे काका जन-प्रिय कवि। काका को बाबा की महत्ता का बोध नहीं था और बाबा को काका की लोकप्रियता का अधिक अंदाज़ा नहीं था, लेकिन बातचीत दिलचस्प रहती थीं।
—बातचीत बता!
—काका कहते थे कि रोज़ नहाया करो तो कम उम्र के लगोगे बाबा। अच्छी सेहत के लिए साफ-सुथरा रहना जरूरी है। बाबा को साफ-सुथरा सोच अच्छा लगता था। काका कांग्रेसी थे, बाबा मार्क्सवादी। बाबा समझ जाते थे कि काका की जानकारी कितनी है और काका समझ जाते थे कि बाबा का हास्यबोध जनता वाला नहीं है। बातचीत साहित्येत्तर विषयों पर ही अधिक हो पाती थी। असहमति के मुद्दे बढ़ने लगते थे तो बातचीत पर विराम लगा दिया जाता था। दोनों के बीच विचारधाराओं की एक गहरी खाई थी, लेकिन एक चीज जो दोनों के अन्दर समान थी, वह था दोनों का मानवीय दृष्टिकोण और आम आदमी के प्रति गहरी सहानुभूति। इस बात पर दोनों सहमत हो जाते थे कि ‘चाहे दक्षिण हो या वाम, जनता को रोटी से काम’। काका दाद देते, ये तुमने लाख टके की बात कह दी बाबा। बाबा कहते थे कि चलो हमारी कोई बात तो पसन्द आई। काका कहते, हमारी तुम्हारी शक्ल मिलती है बाबा! साफ रहना शुरू कर दो तो हम सगे भाई लगें। बाबा आक्रामक मुद्रा में कुछ बोलें इससे पहले काका अपनी छड़ी उठाकर चल देते थे। लेकिन एक बात थी, एक-दूसरे के पीठ पीछे दोनों एक-दूसरे की प्रशंसा करते थे।
—जेई बात तौ बगीची पै सिखानी ऐ!

Wednesday, August 25, 2010

तुम्हारा ‘ना’ तुम्हारा ‘हां’

—चौं रे चम्पू! पुरानी याद ताजा है जाएं, ऐसौ कोई सेर है तेरे पास?
—क्यों नहीं चचा! अर्ज़ किया है— ‘इकहत्तर, बहत्तर, तिहत्तर, चौहत्तर....
—इरसाद, इरसाद, आगै!
—पिचहत्तर, छियत्तर, सतत्तर, अठत्तर।
—जे कैसौ सेर ऐ रे?
—इकहत्तर से अठत्तर तक का काल शानदार यादों का था। जिन चार महाकवियों का यह जन्मशती वर्ष है, बाबा नागार्जुन, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर, उनके साथ सत्संग का मौक़ा मिला। सबसे ज़्यादा सत्संग हुआ बाबा नागार्जुन के साथ।
—बगीची पै जन्मसती समारोह करौ। इन लोगन कूं ऊं बुलाऔ।
—चचा, इनमें से कोई सौ साल पूरे नहीं कर पाया।
—अरे मानिबे में का हरज ऐ? मान कै चलो कै वो अभी हतैं। सबते पहलै बाबा नागार्जुन समारोह करौ। उनकी पसंद की चीज बगीची पै बनाऔ। उनकी पसंद के काम करौ।
—तो फिर चचा, मंगाओ एक स्टोव, मिट्टी के तेल वाला। वे कहते थे कि कविता में माटी की गंध होनी चाहिए और चाय में मिट्टी के तेल की, तभी अच्छी लगती है। सुधीश पचौरी के फोट्टी एट टैगोर पार्क नामक एक कमरे के कम्यून में एक लंगड़ी टाँग का स्टोव हुआ करता था। नोज़ल साफ करने के लिए पिन लगी टिन की पत्तियां आती थीं। कई बार पिन नोजल में रह जाती थी, कभी पत्ती टेढ़ी हो जाती थी। काफी युद्ध करने के बाद स्टोव की नाक जब ठीक होने लगती थी तो इधर-उधर तेज मात्रा में मिट्टी का तेल फेंकती थी जो दीवारों से बाउंस होकर बर्तनों पर गिरता था। इधर चाय की तलब में, ठण्ड के मारे, बाबा की नाक बहने लगती थी। बाबा की नाक उसी चाय को पीने से ठीक होती थी।
—और खाइबे के तांईं?
—स्टोव पर पकवान तो बनते नहीं थे। खिचड़ी बना लो या भीगे चने बघार लो। हरा धनिया, मिर्च मैं काटूं या सुधीश या भास्कर या राजपाल, नमक कितना डलेगा, वे बताएंगे। बाबा को थोड़ा चटक नमक पसंद है। जब तक चीज़ पक न जाय तब तक उनके अधैर्य को भी झेलना पड़ेगा। स्टोव बीच में कभी भी बुझ सकता है। मिट्टी का तेल कभी भी खत्म हो सकता है। कोई भी आकस्मिक विपदा चनों की रंधन-प्रक्रिया में रोधन डाल सकती है। अगर अचानक ही तीन कॉमरेड और आ गए तो संकट दूसरा। दरअसल, उनको लगता था कि उनको बहुत भूख लग रही है और वे बहुत ज्यादा खाएंगे, पर खाते वे खोड़ा सा ही थे। चार दाने पेट में गए नहीं कि उनकी आंखों में चमक आ जाएगी और अपने हिस्से का भी वे कॉमरेड्स में बांट देंगे। फिर कविता सुनाएंगे— आगामी युगों के मुक्ति-सैनिको! आओ, मैं तुम्हारा चुंबन लूँगा, जूतियाँ चमकाऊंगा तुम्हारी.....
—ठीक ऐ, मट्टी कौ तेल मगाय लिंगे। ...और माटी की गंध वारी कबता कौन सुनायगौ?
—एक तो मैं भी सुना सकता हूं। मेरी ‘खचेरा और उसकी फेंटेसी’ कविता को वे मिट्टी की गंध वाली कविता कहा करते थे। यह कविता एक दिन उन्होंने लगातार तीन बार सुनी। मैं हर बार अपने नाटकीय कौशल से उनको सुनाता था। एक अंश उनको बहुत भाता था— ‘वह बौहरे की जूती का तेल है, वह पंडित की लड़ावनी की सानी है, वह साह जी की बैठक की झाडू है, वह रमजिया के हुक्के का पानी है, वह बैज्जी के बैल का खरैरा है, वह कुमर साब के घोड़े की लीद है। --हमारा छप्पर छा देना खचेरा! --हमारा सन बट देना खचेरा! --हमारी खाट बुन देना खचेरा! खचेरा छा रहा है, बट रहा है, बुन रहा है, खचेरा अपना ही सिर धुन रहा है।’ इन पंक्तियों पर वे ठुमकने भी लगते थे।
—और बता।
—और क्या? उनसे बात करने के लिए लोग चाहिए। ऐसे लोग जो समाज की चिंता रखते हों। बात नहीं करोगे तो किसी और ठिकाने पर चल देंगे। जहाँ जहाँ जाना होगा, पोस्टकार्ड पर चार लाइन लिख कर सूचित कर देंगे। उनके खूब पोस्टकार्ड आते थे हमारे सनलाइट कॉलोनी वाले घर में। प्रिय अ॰च॰ और बा॰च॰ तुम्हारे पुत्र से अठखेली करने अमुक तिथि को आऊँगा। तुम्हारा... और नीचे बंगाली शैली में बहुत सुन्दर सा लिखा होता था— ‘ना’। हर पोस्टकार्ड-पाऊ को लगता था तुम्हारा ‘हां’।
—पोस्टकार्ड ऊ मंगाय लिंगे, और बता।

Wednesday, August 18, 2010

साकार सरासर और सरेआम

—चौं रे चम्पू! कस्मीर में फिर एक जूता-काण्ड है गयौ! पिछले जूता-काण्डन में और जा जूता-काण्ड में का फरक ऐ रे?
—चचा, देश में या विदेश में, पहले जितने भी जूतास्त्र चले, वे पत्रकार-प्रजाति द्वारा चलाए गए। उनका उद्देश्य था समस्याओं की ओर विश्व का अथवा देश का ध्यानाकर्षण। लेकिन, इस बार उमर अब्दुल्ला पर जो जूता फेंका गया है, वह किसी पत्रकार द्वारा रखा गया ध्यानाकर्षण प्रस्ताव नहीं था। यह एक कांस्टेबुल का ताव था। दूसरा मुख्य अन्तर यह है कि अब तक जिनको भी लक्ष्य बना कर जूतास्त्र का उपयोग किया गया है, उनमें से किसी के पिताजी ने घटना का महिमा-गायन नहीं किया। फ़ारुख अब्दुल्ला कहते हैं कि उनके पुत्र का क़द और बड़ा हो गया है। उमर अब अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बुश, पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी, चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ और केंद्रीय गृहमंत्री के ग्रुप में शामिल हो गए हैं। इस ‘विशिष्ट क्लब’ में फ़ारुख साहब ने सिरसा जूता-कांड का ज़िक्र नहीं किया।
—सिरसा में का भयौ ओ?
—साध्वियों के यौन शोषण और हत्याकांडों के मुख्य आरोपी, डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख, गुरमीत सिंह पर, मजलिस के दौरान, एक व्यक्ति ने जूता फेंका था। ख़ैर छोड़िए, तीसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि इस जूता-फेंकू का निशाना पूर्ववर्तियों की तुलना में सबसे ख़राब था। शायद इसका कारण यह भी रहा हो कि इसका विरोध व्यक्तिगत था। पुलिस का यह निलंबित कान्सटेबुल क्रोध में स्वयं को संतुलित नहीं रख पाया। घटना के बाद कहा भी जा रहा है कि वह पागल है।
—अरे, नायं, पागल नायं है सकै! दिमाग में जब कोई चीज ठुक जाय, तबहि कोई ऐसौ कदम उठायौ करै। लोग पागल कहि दैं, सो अलग बात ऐ।
—पागल कहने में शासन की इज़्ज़त बच जाती है न! पागल था, जूता फेंक दिया। क्या हुआ?
—अंदर की कहानी कछू और ई निकरैगी!
—अन्दर की कहानी जानने के लिए मुझे जाना पड़ेगा कश्मीर। कश्मीर जाना हालांकि अब रिस्की नहीं है, लेकिन हमारे पचपन जवान हाल ही में शहीद हुए हैं। प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में उनको संवेदना भी ज्ञापित की थी। मैं ‘अब तक छप्पन’ न हो जाऊं चचा!
—अरे, हट्ट पगले! चौं जायगौ कस्मीर?
—यही पता लगाने कि वह व्यक्ति पागल है या दिमागदार!
—का फरक परै?
—तुम्हीं तो उकसा रहे हो चचा। फर्क ये पड़ता है कि उसको पागल कहने में शासन-प्रशासन को सुविधा होती है। अपमान की मात्रा कम होती है। जूता एक निराकार शक्ति बनकर रह जाता है, जबकि है वह साकार, सरासर और सरेआम अपमान-प्रदाता। चलिए वो पागल भी था, लेकिन निलंबित था, यह तो एक सच्चाई है न? निलंबित क्यों था? इसकी जांच होनी चाहिए। इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि जनाबेआली उमर अब्दुल्ला ने जिस शेखी के साथ यह बघार दिया कि पथराव से ज्यादा अच्छा है जूता फेंकना, उन्हीं के इशारे पर पन्द्रह पुलिसकर्मी और निलंबित कर दिए गए, जिनमें तीन बड़े पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं। अब अताइए, उनका ऐसा क्या कुसूर! एक आदमी जो पुलिस-व्यवस्था की कमजोरियों को जानता है, किसी राजनेता का निमंत्रण-पत्र लेकर, विशिष्ट दर्शक-दीर्घा में घुस आया, इसमें उन पन्द्रह लोगों का क्या कुसूर? अब उमर अब्दुल्ला साहब ने एक साथ पन्द्रह लोगों को पागल हो जाने का मौका दे दिया।
—सो कैसै?
—ये पन्द्रह लगभग अकारण ही निलंबित हुए हैं। देखना कि पन्द्रह के कितने गुना पागल होते हैं। ये पागल, इनकी बीवियां पागल, इनके बच्चे पागल, इनके दोस्त पागल। पन्द्रह के बजाय पन्द्रह सौ पागल हो जाएंगे। असल चीज है न्याय का मिलना। न्याय अगर न मिले तो पागलपन बढ़ता है चचा। निश्चित रूप से उस जूता-मारू कांस्टेबुल के साथ कोई अन्याय हुआ होगा।
—तेरी भली चलाई चंपू! कोई और बात कर।
—उमर की उम्र-नीति तो सुन लो। एक ताज़ा कुण्डली बनाई है— काजू ताजा नारियल, भीगे हुए बदाम। उम्र बढ़ाने के लिए, आते हैं ये काम। आ नहिं पाते काम, अगर हो पत्थरबाज़ी। उम्र न झेल सकेगी जनता की नाराज़ी। उम्र बढ़े, यदि मिले उमर-कथनी सा बूता। पत्थर से बेहतर है कांस्टेबुल का जूता।

Wednesday, August 11, 2010

लेह में मेह लील गई देह

—चौं रे चम्पू! जे बता कै का कियौ जा सकै और का नायं कियौ जा सकै?
—चचा, यह सवाल तो बहुत व्यापक है। करने योग्य बहुत सारी चीजें हैं और जो नहीं की जा सकतीं, ऐसी भी बहुत हैं।
—तू कोई एक बता यार। घुमावै चौं ऐ?
—चचा, प्रकृति का विरोध किया जा सकता है, लेकिन उसे सम्पूर्ण रूप से पराजित नहीं किया जा सकता।
—बात तौ सई कई ऐ रे!
—लेह में बादल फट गए। हम प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के हज़ार प्रयत्न कर लें, पर प्रकृति के कोप की तोप के प्रकोप के आगे कोई स्कोप नहीं। यूरोप के पोप बचा सकते हैं न कान्हा के गोप। जो लोप हो गए अब उनकी होप भी कम है।
—बादर फटे कैसै?
—बंगाल की खाड़ी से उठने वाली भाप बादलों में बदल गई। घन इतने सघन हो गए कि टकराने लगे। धरती के एक टुकड़े पर धांय से गिर पड़े। इसे कैसे रोकेंगे, बताइए! बादल फटने से पहले माना कि प्रकृति ने बिजली कड़का कर टैलीग्राम भेजा था कि संभल जाओ, लेकिन हम कब उस चेतावनी को इतनी गंभीरता से लेते हैं। खूब बिजली कड़कीं लेह में, ऐसी कड़कीं जैसी वहां पर पहले कभी न कड़की होंगी। गांव वाले अपने घरों में दुबक गए। जब ऊपर नभ से पानी का कुंभ औंधा हुआ तो यहां के सारे घड़े टूट गए घड़ी भर में। लेह की रेह जैसी मिट्टी निर्मोही मेह के कारण दलदल में बदल गई। वह दलदल न जाने कितनी देहों को लील गया।
—तौ लेह में मेह लील गई देह!
—उनमें सेना के हमारे जवान भी थे। सीमा पर तैनात, शत्रु पर कड़ी नजर रखे हुए, लेकिन मिट्टी, कीचड़, पानी में बहते-बहते पहुंच गए पल्ली पार। अब भारत सरकार पाकिस्तान से मांग कर रही है कि उस मिट्टी में से हमारे सैनिकों को निकालने में हमारी सहायता करे। बताइए, जो सैनिक लड़ने के लिए खड़े थे सीमा के इस ओर, उनके शवों को निकालने में उनकी दिलचस्पी क्यों होगी भला?
—अरे नायं रे, इत्तौ बुरौ नायं पाकिस्तान, मौत-मांदगी में तौ दुस्मन ऊ मदद करै। चौं नाय निकारिंगे?
—हां, वही तो बात मैं भी कहना चाहता हूं चचा कि अब हमारे वे सैनिक शहीद हो गए। पाकअधिकृत कश्मीर में पाकिस्तान के जो सैनिक उनकी देह निकालेंगे, वे मनुष्य होंगे। मनुष्यता के नाते लेह से बही हुई एक-एक देह को निकालेंगे। निश्चित रूप से निकालेंगे। अपना सद्भाव-सौहार्द दिखाएंगे, क्योंकि लड़ाई एक मानसिकता है, भलाई दूसरी मानसिकता है। मनुष्य अन्दर से जो प्रकृति रखता है वह कड़ाई से भलाई की ओर जाती है। प्रसाद जी ने लिखा था— ‘निकल रही थी मर्म वेदना करुणा विकल कहानी सी, वहां अकेली प्रकृति सुन रही हंसती सी पहचानी सी।’ प्रकृति जो कभी हमें सजाती और संवारती है, वही रोने के लिए भी विवश कर देती है।
—पिरकिरती कूं परास्त नायं कर सकै कोई।
—उसे धैर्य से ही परास्त किया जा सकता है। अन्दर की प्रकृति हो या बाहर की, कुल मिलाकर घोर संग्राम के समय में और विकट विपत्तियों में हमारे जीवन में कुछ कांट-छांट करती है। हमारे वे एक सौ तेतीस जवान आपदा प्रबंधन में महारत रखते थे। उनको ऐसी दीक्षा दी गई थी कि इतनी ऊंचाई पर अगर कोई विपदा आए तो तुम कैसे अपने देशवासियों को बचाओगे। वे स्वयं ही काल-कलवित हो गए। दूसरे देश के मनुष्य उनकी देह निकाल रहे हैं। दूसरे देश के सैनिकों को धन्यवाद दूंगा कि उन्होंने हमारे सैनिकों को सम्मानपूर्वक तिरंगे में लपेटने की सुविधा प्रदान की। धन्यवाद देना चाहता हूं आमिर खान को जिन्होंने स्कूल के प्रिंसिपल से कहा है कि टूटी इमारत बनाने में मदद करेंगे। प्रिंसिपल ने साधन और श्रमशक्ति को देखकर अनुमान से बताया है कि पुनर्निर्माण में आठ-नौ महीने लग जाएंगे। बहुत समय होता है आठ-नौ महीने चचा! स्कूल को तो आठ दिन में खड़ा कर देना चाहिए। मन करता है कि मैं भी लेह पहुंच जाऊं और जो घर, स्कूल कार्यालय टूटे हैं, उजड़े हैं, वहां कार सेवा करूं। बच्चों को पढ़ाऊं। किलकारियों को वापस ले आऊं।
—चल तौ मैं ऊं चलुंगो तेरे संग। बता कब चलैगौ?

Wednesday, August 04, 2010

चमन को अचरज भारी

—चौं रे चम्पू! कछू नई-पुरानी सुना, चुप्प चौं ऐ?
—चचा, नई तो ये कि जल-पुरुष राजेंद्र सिंह से मुलाक़ात हुई और पुरानी ये कि मैं एक पुरानी पंक्ति पर अटक गया। इन दिनों इतनी बरसात हो रही है, फिर भी पीने के पानी का संकट है। जगह-जगह बुरा हाल है। इतनी बरसात के बावजूद अकाल है। एक गीत की प्रथम दो पंक्तियों में दूसरी तो याद थी, पहली याद नहीं आ रही थी।
—तू दूसरी ई सुना।
—दूसरी पंक्ति है— ‘यही चमन को अचरज भारी, पानी कहां चला जाता है?’ किशोरावस्था में यह गीत सुना था, धुन भी याद है। मसला पहली लाइन का था। मैं सोचने लगा गोपाल सिंह नेपाली की है या शिशुपाल शिशु की, बच्चन जी की तो नहीं ही है। चचा उदय प्रताप सिंह से पूछा। वे बोले— ‘पंक्ति तो याद आ रही है, लेकिन कवि कौन है, कुछ समझ में नहीं आ रहा। सोम ठाकुर जी से पूछा। वे तपाक से बोले— ‘यह पंक्ति ग्वालियर वाले आनन्द मिश्र की है।’ लेकिन पहली पंक्ति? इस पर वे भी मौन हो गए, लेकिन चचा, जैसे ही सोम जी ने आनन्द मिश्र का नाम बताया, मुझे पहली पंक्ति का आधा हिस्सा याद आ गया। सन चौंसठ-पैंसठ की बात होगी। उनका चेहरा अब मेरे सामने था। वे आकाश की ओर देख कर गीत शुरू किया करते थे— ‘बादल इतना बरस रहे हैं...’, लेकिन इसके आगे क्या?
—हम पानी कूं तरस रए हैं...!
—नहीं चचा नहीं! पानी दूसरी पंक्ति में आ चुका, अब पहली में नहीं आ सकता। कल भोपाल में मिले ग्वालियर वाले प्रदीप चौबे। उन्होंने कहा कि ग्वालियर के पुराने लोगों में दामोदर जी बता सकते हैं, आनंद मिश्र के छोटे भाई प्रकाश मिश्र तो अभी सो कर न उठे होंगे। फोन लगाया। दामोदर जी के यहां घण्टी बजती रही। मैंने कहा बैजू कानूनगो को ट्राई करिए! बात बन गई। उन्होंने तो पूरा गीत सुना दिया— ‘बादल इतना बरस रहे हैं, फिर भी पौधे तरस रहे हैं, यही चमन को अचरज भारी, पानी कहां चला जाता है।’ वाह चचा वाह! सुन कर आनंद आ गया। मैंने कवि-जगत के जलपुरुष आनंद मिश्र को मन ही मन प्रणाम किया, जिन्होंने अबसे पचास वर्ष पहले यह गीत लिखा था।
—और जल-पुरुस राजेंद्र सिंह?
—वे व्यवहार-जगत के जल-पुरुष हैं। पानी के लिए ज़बरदस्त सकर्मक चेतना रखते हैं। राजेन्द्र सिंह जल संरक्षण के घनघोर समर्थक हैं। कहीं इन्हें वाटरमैन कहा जाता है, कहीं पानी बाबा। सरकारी नौकरी छोड़कर इन्होंने राजस्थान के ग्यारह जिलों के आठ सौ पचास गांवों में चैकडेम बनाकर वर्षा जल संरक्षण का बहुत ज़ोरदार काम किया। सूख गई नदियों के पुनरुत्थान में जुट गए। ग्रामीणों को जल के प्रति आत्मनिर्भर बनाया। और चचा, जब भी कोई अच्छा काम करता है तो इनाम भी मिलते हैं। इन्हें बहुत सारे सम्मान मिले, मैगसैसै पुरस्कार से नवाजे गए।
—मुलाकात भई तौ वो का बोले?
—वे कहने लगे कि ये देश बड़ा अद्भुत है जो नदियों को मां कहता है, लेकिन पिछले नब्बे वर्षों में जिसे हम विकास कहते हैं उसने हमारे ज्ञान की विकृति, विस्थापन के साथ एक तरह से हमारे संस्कार का विनाश शुरू कर दिया। जिसे हम मां कहते हैं उसे हमने मैला ढोने वाली मालगाड़ी बना दिया। अधोभूजल को ट्यूबवैल, बोरवैल और पम्प लगा कर सुखा दिया। नदियां मरने लगीं।
—तौ राजेन्द्र सिंह नै का कियौ?
—चाचा, उन्होंने तरह-तरह की तकनीकों से ग्रामीण क्षेत्रों में जलसंरक्षण के कमाल के काम किए। जनचेतना अभियान छेड़ दो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है। उन्होंने कहा कि बरसात के बाद पानी जब बहुत तेज़ दौड़े तो उससे कहो धीमा चले, जब धीमे चलने लगे तो कहो कि रैंगे,और जब वह रैंगने लगे तो कहो कि ठहर जा और जब पानी ठहर जाएगा तो जहां-जहां धरती का पेट खुला मिलेगा वहां-वहां बैठ जाएगा। ज़रूरत पड़ने पर नदियों में निकाल आएगा। फिर यह अचरज नहीं होगा जो पचास साल पहले आनन्द मिश्र को हुआ था कि पानी कहां चला जाता है। पानी कहीं नहीं जाएगा। हम उसको धरती के गर्भ में सुरक्षित रखना सीख लें, बस।
—बरसात है रई ऐ, बगीची कौ पानी बगीची में ई रोक लें, आजा।

Wednesday, July 28, 2010

शब्दोत्तर और लोकोत्तर मनोभूमि

—चौं रे चम्पू! कानन में तार ठूंस कै का सुनि रह्यौ ऐ रे?
—चचा, भारतीय कविता उत्सव का टेप सुन रहा हूं, हैडफोन लगा के। आप को भी सुनवाऊंगा। उड़िया कवि डॉ॰ सीताकान्त महापात्र ने अपनी भाषा में पांच कविताएं सुनाई थीं और फिर डॉ॰ रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव परिचयदास ने उनका अनुवाद पढ़ा था।
—कबितान कौ अनुबाद तौ भौत मुस्किल काम ऐ।
—मुश्किल है पर यदि अनुवादक भी अच्छा कवि हो, उसे पर्याप्त से अधिक भाषा-ज्ञान हो तो इतना मुश्किल नहीं है। अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद करना मुश्किल हो सकता है क्योंकि वाक्य-विन्यास और शब्द-ध्वनियों में काफ़ी अन्तर होता है, पर किसी अन्य भारतीय भाषा से हिन्दी में अनुवाद करना उतना कठिन नहीं होना चाहिए।
—हां, तौ आगे बता!
—मैंने एक बात पर ध्यान दिया कि जब उड़िया में महापात्र जी अपनी कविता सुना रहे थे तो ध्वनियां हमें आह्लादित कर रही थीं। कविताएं समझ में नहीं आ रही थीं। संस्कृत हमारी भाषाओं की मूल है, इसलिए कुछ-कुछ शब्द तो समझ पाता था, लेकिन पूरा भाव पल्ले नहीं पड़ रहा था। ऐसा ही सभागार में रहा था। कविता पूरी समझ में नहीं आईं फिर भी हर कविता के समापन पर तालियां बज रही थीं। शब्दोत्तर और लोकोत्तर मनोभूमि का आनंद था। लेकिन जब उनका अनुवाद पढ़ा गया, कविताएं समझ में आईं, तो पहले से कहीं ज़ोरदार तालियां बजीं। कविता के समापन पर ही नहीं, बीच-बीच में भी। लोगों ने पहली बार जो तालियां बजाईं वे महापात्र जी के महाकवि के लिए बजाईं थीं। उनके अपने श्रीमुख से सुनना एक अनुभव था। यह भी कह सकते हैं की वे सम्मान की तालियां थीं, और जब श्रीवास्तव जी ने उन्हीं कविताओं का हिन्दी अनुवाद सुनाया, तब जो तालियां बजीं वे तालियां अनुवादक के लिए उतनी नहीं थीं, जितनी महापात्र जी की कविता के लिए। अनुवाद के बाद कविता हम तक पहुंच गई न! कविता का उत्स ही न समझ में आए तो उत्सव क्या मनेगा?
—जे बात तौ तेरी सई ऐ!
—कविताएं सुनाने से पहले एक बात महापात्र जी ने कही थी कि कविता का ये उत्सव हमारी पारस्परिकता के लिए है और अनुवाद की महत्ता उसमें बहुत ज़्यादा है।
—जे बात बी सई ऐ!
—हां चचा, उत्स तक पहुंचने के लिए हमें संप्रेषण का कोई तो पुल चाहिए। अनुवाद के पुल पर चलकर हम महापात्र जी की अद्भुत कल्पनाओं और निराले बिंबों तक पहुंच सके। माचिस की डिबिया में तीली बनकर यात्रा करने के बाद कविता का नायक देर से पहुंचा। दादी के ऊपर चढ़ी चादर ने आकाश से संपर्क साध लिया। पिता की छाया, गोबर लिपी दीवार पर रो रही थी। माटी की महक और क्षितिज में डूबते हुए सूरज के साथ पिता भी चले गए। क्या बिम्ब-माला रची थी! एक कविता में भिखारी बच्चा कोमल स्पर्श तब महसूस कर पाता है जब उसकी देह न रही। चंदा उसके अल्मूनियम के कटोरे में सिक्के की तरह आ गिरा। कविता में शब्दों की खनक और उठने वाली गूंज को सुना जा सकता है। शब्दों की अर्थछायाओं में भी प्रतिच्छायाएं होती हैं चचा। ये प्रतिच्छायाएं हमारे अंदर अवसाद के साथ एक आनन्द को जन्म देती हैं।
—आनंद कैसौ लल्ला?
—हम अपने स्वयं के अनुभवों में झांकने लगते हैं न। कवि के साथ हमारी अपनी कल्पनाएं भी एक झरना बन जाती हैं। अच्छी कविता वही होती है जो सुनने-पढ़ने वालों को भी कवि बना दे। तनावों में अकुंठ करे। एक बात तो तय है कि कविता के जितने फलक और आयाम हो सकते हैं, वे केवल कवि-प्रदत्त ही नहीं होते। एक बार जब कवि कविता सुना देता है तो वह उसकी कहां रह जाती है? वह तो सबकी हो जाती है। स्वयं में एक सत्ता बन जाती है। कविता बढ़ने लगती है, नए-नए शब्द गढ़ने लगती है। शब्द भी अकेला नहीं आता। अपने साथ पूरा कुनबा लेकर आता है। कुनबे के साथ पूरा समाज चला आता है। शब्दों के संकल्प-विकल्प देता है। मैं अक्सर कहता हूं— मेरे शब्द, शब्द नहीं हैं, डूबते को सहारे के तिनके हैं। और मेरे भी कहां हैं वे शब्द, पता नहीं किन-किन के हैं? लो तुम्हें दे रहा हूं गिन-गिन के, तुम्हारे हो जाएंगे अगर तुम हो सकोगे इनके।
—ला, जे तार मोय दै, मैं सुनुंगो। हैडफोन लगाय कै!