Wednesday, August 25, 2010

तुम्हारा ‘ना’ तुम्हारा ‘हां’

—चौं रे चम्पू! पुरानी याद ताजा है जाएं, ऐसौ कोई सेर है तेरे पास?
—क्यों नहीं चचा! अर्ज़ किया है— ‘इकहत्तर, बहत्तर, तिहत्तर, चौहत्तर....
—इरसाद, इरसाद, आगै!
—पिचहत्तर, छियत्तर, सतत्तर, अठत्तर।
—जे कैसौ सेर ऐ रे?
—इकहत्तर से अठत्तर तक का काल शानदार यादों का था। जिन चार महाकवियों का यह जन्मशती वर्ष है, बाबा नागार्जुन, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर, उनके साथ सत्संग का मौक़ा मिला। सबसे ज़्यादा सत्संग हुआ बाबा नागार्जुन के साथ।
—बगीची पै जन्मसती समारोह करौ। इन लोगन कूं ऊं बुलाऔ।
—चचा, इनमें से कोई सौ साल पूरे नहीं कर पाया।
—अरे मानिबे में का हरज ऐ? मान कै चलो कै वो अभी हतैं। सबते पहलै बाबा नागार्जुन समारोह करौ। उनकी पसंद की चीज बगीची पै बनाऔ। उनकी पसंद के काम करौ।
—तो फिर चचा, मंगाओ एक स्टोव, मिट्टी के तेल वाला। वे कहते थे कि कविता में माटी की गंध होनी चाहिए और चाय में मिट्टी के तेल की, तभी अच्छी लगती है। सुधीश पचौरी के फोट्टी एट टैगोर पार्क नामक एक कमरे के कम्यून में एक लंगड़ी टाँग का स्टोव हुआ करता था। नोज़ल साफ करने के लिए पिन लगी टिन की पत्तियां आती थीं। कई बार पिन नोजल में रह जाती थी, कभी पत्ती टेढ़ी हो जाती थी। काफी युद्ध करने के बाद स्टोव की नाक जब ठीक होने लगती थी तो इधर-उधर तेज मात्रा में मिट्टी का तेल फेंकती थी जो दीवारों से बाउंस होकर बर्तनों पर गिरता था। इधर चाय की तलब में, ठण्ड के मारे, बाबा की नाक बहने लगती थी। बाबा की नाक उसी चाय को पीने से ठीक होती थी।
—और खाइबे के तांईं?
—स्टोव पर पकवान तो बनते नहीं थे। खिचड़ी बना लो या भीगे चने बघार लो। हरा धनिया, मिर्च मैं काटूं या सुधीश या भास्कर या राजपाल, नमक कितना डलेगा, वे बताएंगे। बाबा को थोड़ा चटक नमक पसंद है। जब तक चीज़ पक न जाय तब तक उनके अधैर्य को भी झेलना पड़ेगा। स्टोव बीच में कभी भी बुझ सकता है। मिट्टी का तेल कभी भी खत्म हो सकता है। कोई भी आकस्मिक विपदा चनों की रंधन-प्रक्रिया में रोधन डाल सकती है। अगर अचानक ही तीन कॉमरेड और आ गए तो संकट दूसरा। दरअसल, उनको लगता था कि उनको बहुत भूख लग रही है और वे बहुत ज्यादा खाएंगे, पर खाते वे खोड़ा सा ही थे। चार दाने पेट में गए नहीं कि उनकी आंखों में चमक आ जाएगी और अपने हिस्से का भी वे कॉमरेड्स में बांट देंगे। फिर कविता सुनाएंगे— आगामी युगों के मुक्ति-सैनिको! आओ, मैं तुम्हारा चुंबन लूँगा, जूतियाँ चमकाऊंगा तुम्हारी.....
—ठीक ऐ, मट्टी कौ तेल मगाय लिंगे। ...और माटी की गंध वारी कबता कौन सुनायगौ?
—एक तो मैं भी सुना सकता हूं। मेरी ‘खचेरा और उसकी फेंटेसी’ कविता को वे मिट्टी की गंध वाली कविता कहा करते थे। यह कविता एक दिन उन्होंने लगातार तीन बार सुनी। मैं हर बार अपने नाटकीय कौशल से उनको सुनाता था। एक अंश उनको बहुत भाता था— ‘वह बौहरे की जूती का तेल है, वह पंडित की लड़ावनी की सानी है, वह साह जी की बैठक की झाडू है, वह रमजिया के हुक्के का पानी है, वह बैज्जी के बैल का खरैरा है, वह कुमर साब के घोड़े की लीद है। --हमारा छप्पर छा देना खचेरा! --हमारा सन बट देना खचेरा! --हमारी खाट बुन देना खचेरा! खचेरा छा रहा है, बट रहा है, बुन रहा है, खचेरा अपना ही सिर धुन रहा है।’ इन पंक्तियों पर वे ठुमकने भी लगते थे।
—और बता।
—और क्या? उनसे बात करने के लिए लोग चाहिए। ऐसे लोग जो समाज की चिंता रखते हों। बात नहीं करोगे तो किसी और ठिकाने पर चल देंगे। जहाँ जहाँ जाना होगा, पोस्टकार्ड पर चार लाइन लिख कर सूचित कर देंगे। उनके खूब पोस्टकार्ड आते थे हमारे सनलाइट कॉलोनी वाले घर में। प्रिय अ॰च॰ और बा॰च॰ तुम्हारे पुत्र से अठखेली करने अमुक तिथि को आऊँगा। तुम्हारा... और नीचे बंगाली शैली में बहुत सुन्दर सा लिखा होता था— ‘ना’। हर पोस्टकार्ड-पाऊ को लगता था तुम्हारा ‘हां’।
—पोस्टकार्ड ऊ मंगाय लिंगे, और बता।

Wednesday, August 18, 2010

साकार सरासर और सरेआम

—चौं रे चम्पू! कस्मीर में फिर एक जूता-काण्ड है गयौ! पिछले जूता-काण्डन में और जा जूता-काण्ड में का फरक ऐ रे?
—चचा, देश में या विदेश में, पहले जितने भी जूतास्त्र चले, वे पत्रकार-प्रजाति द्वारा चलाए गए। उनका उद्देश्य था समस्याओं की ओर विश्व का अथवा देश का ध्यानाकर्षण। लेकिन, इस बार उमर अब्दुल्ला पर जो जूता फेंका गया है, वह किसी पत्रकार द्वारा रखा गया ध्यानाकर्षण प्रस्ताव नहीं था। यह एक कांस्टेबुल का ताव था। दूसरा मुख्य अन्तर यह है कि अब तक जिनको भी लक्ष्य बना कर जूतास्त्र का उपयोग किया गया है, उनमें से किसी के पिताजी ने घटना का महिमा-गायन नहीं किया। फ़ारुख अब्दुल्ला कहते हैं कि उनके पुत्र का क़द और बड़ा हो गया है। उमर अब अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बुश, पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी, चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ और केंद्रीय गृहमंत्री के ग्रुप में शामिल हो गए हैं। इस ‘विशिष्ट क्लब’ में फ़ारुख साहब ने सिरसा जूता-कांड का ज़िक्र नहीं किया।
—सिरसा में का भयौ ओ?
—साध्वियों के यौन शोषण और हत्याकांडों के मुख्य आरोपी, डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख, गुरमीत सिंह पर, मजलिस के दौरान, एक व्यक्ति ने जूता फेंका था। ख़ैर छोड़िए, तीसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि इस जूता-फेंकू का निशाना पूर्ववर्तियों की तुलना में सबसे ख़राब था। शायद इसका कारण यह भी रहा हो कि इसका विरोध व्यक्तिगत था। पुलिस का यह निलंबित कान्सटेबुल क्रोध में स्वयं को संतुलित नहीं रख पाया। घटना के बाद कहा भी जा रहा है कि वह पागल है।
—अरे, नायं, पागल नायं है सकै! दिमाग में जब कोई चीज ठुक जाय, तबहि कोई ऐसौ कदम उठायौ करै। लोग पागल कहि दैं, सो अलग बात ऐ।
—पागल कहने में शासन की इज़्ज़त बच जाती है न! पागल था, जूता फेंक दिया। क्या हुआ?
—अंदर की कहानी कछू और ई निकरैगी!
—अन्दर की कहानी जानने के लिए मुझे जाना पड़ेगा कश्मीर। कश्मीर जाना हालांकि अब रिस्की नहीं है, लेकिन हमारे पचपन जवान हाल ही में शहीद हुए हैं। प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में उनको संवेदना भी ज्ञापित की थी। मैं ‘अब तक छप्पन’ न हो जाऊं चचा!
—अरे, हट्ट पगले! चौं जायगौ कस्मीर?
—यही पता लगाने कि वह व्यक्ति पागल है या दिमागदार!
—का फरक परै?
—तुम्हीं तो उकसा रहे हो चचा। फर्क ये पड़ता है कि उसको पागल कहने में शासन-प्रशासन को सुविधा होती है। अपमान की मात्रा कम होती है। जूता एक निराकार शक्ति बनकर रह जाता है, जबकि है वह साकार, सरासर और सरेआम अपमान-प्रदाता। चलिए वो पागल भी था, लेकिन निलंबित था, यह तो एक सच्चाई है न? निलंबित क्यों था? इसकी जांच होनी चाहिए। इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि जनाबेआली उमर अब्दुल्ला ने जिस शेखी के साथ यह बघार दिया कि पथराव से ज्यादा अच्छा है जूता फेंकना, उन्हीं के इशारे पर पन्द्रह पुलिसकर्मी और निलंबित कर दिए गए, जिनमें तीन बड़े पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं। अब अताइए, उनका ऐसा क्या कुसूर! एक आदमी जो पुलिस-व्यवस्था की कमजोरियों को जानता है, किसी राजनेता का निमंत्रण-पत्र लेकर, विशिष्ट दर्शक-दीर्घा में घुस आया, इसमें उन पन्द्रह लोगों का क्या कुसूर? अब उमर अब्दुल्ला साहब ने एक साथ पन्द्रह लोगों को पागल हो जाने का मौका दे दिया।
—सो कैसै?
—ये पन्द्रह लगभग अकारण ही निलंबित हुए हैं। देखना कि पन्द्रह के कितने गुना पागल होते हैं। ये पागल, इनकी बीवियां पागल, इनके बच्चे पागल, इनके दोस्त पागल। पन्द्रह के बजाय पन्द्रह सौ पागल हो जाएंगे। असल चीज है न्याय का मिलना। न्याय अगर न मिले तो पागलपन बढ़ता है चचा। निश्चित रूप से उस जूता-मारू कांस्टेबुल के साथ कोई अन्याय हुआ होगा।
—तेरी भली चलाई चंपू! कोई और बात कर।
—उमर की उम्र-नीति तो सुन लो। एक ताज़ा कुण्डली बनाई है— काजू ताजा नारियल, भीगे हुए बदाम। उम्र बढ़ाने के लिए, आते हैं ये काम। आ नहिं पाते काम, अगर हो पत्थरबाज़ी। उम्र न झेल सकेगी जनता की नाराज़ी। उम्र बढ़े, यदि मिले उमर-कथनी सा बूता। पत्थर से बेहतर है कांस्टेबुल का जूता।

Wednesday, August 11, 2010

लेह में मेह लील गई देह

—चौं रे चम्पू! जे बता कै का कियौ जा सकै और का नायं कियौ जा सकै?
—चचा, यह सवाल तो बहुत व्यापक है। करने योग्य बहुत सारी चीजें हैं और जो नहीं की जा सकतीं, ऐसी भी बहुत हैं।
—तू कोई एक बता यार। घुमावै चौं ऐ?
—चचा, प्रकृति का विरोध किया जा सकता है, लेकिन उसे सम्पूर्ण रूप से पराजित नहीं किया जा सकता।
—बात तौ सई कई ऐ रे!
—लेह में बादल फट गए। हम प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के हज़ार प्रयत्न कर लें, पर प्रकृति के कोप की तोप के प्रकोप के आगे कोई स्कोप नहीं। यूरोप के पोप बचा सकते हैं न कान्हा के गोप। जो लोप हो गए अब उनकी होप भी कम है।
—बादर फटे कैसै?
—बंगाल की खाड़ी से उठने वाली भाप बादलों में बदल गई। घन इतने सघन हो गए कि टकराने लगे। धरती के एक टुकड़े पर धांय से गिर पड़े। इसे कैसे रोकेंगे, बताइए! बादल फटने से पहले माना कि प्रकृति ने बिजली कड़का कर टैलीग्राम भेजा था कि संभल जाओ, लेकिन हम कब उस चेतावनी को इतनी गंभीरता से लेते हैं। खूब बिजली कड़कीं लेह में, ऐसी कड़कीं जैसी वहां पर पहले कभी न कड़की होंगी। गांव वाले अपने घरों में दुबक गए। जब ऊपर नभ से पानी का कुंभ औंधा हुआ तो यहां के सारे घड़े टूट गए घड़ी भर में। लेह की रेह जैसी मिट्टी निर्मोही मेह के कारण दलदल में बदल गई। वह दलदल न जाने कितनी देहों को लील गया।
—तौ लेह में मेह लील गई देह!
—उनमें सेना के हमारे जवान भी थे। सीमा पर तैनात, शत्रु पर कड़ी नजर रखे हुए, लेकिन मिट्टी, कीचड़, पानी में बहते-बहते पहुंच गए पल्ली पार। अब भारत सरकार पाकिस्तान से मांग कर रही है कि उस मिट्टी में से हमारे सैनिकों को निकालने में हमारी सहायता करे। बताइए, जो सैनिक लड़ने के लिए खड़े थे सीमा के इस ओर, उनके शवों को निकालने में उनकी दिलचस्पी क्यों होगी भला?
—अरे नायं रे, इत्तौ बुरौ नायं पाकिस्तान, मौत-मांदगी में तौ दुस्मन ऊ मदद करै। चौं नाय निकारिंगे?
—हां, वही तो बात मैं भी कहना चाहता हूं चचा कि अब हमारे वे सैनिक शहीद हो गए। पाकअधिकृत कश्मीर में पाकिस्तान के जो सैनिक उनकी देह निकालेंगे, वे मनुष्य होंगे। मनुष्यता के नाते लेह से बही हुई एक-एक देह को निकालेंगे। निश्चित रूप से निकालेंगे। अपना सद्भाव-सौहार्द दिखाएंगे, क्योंकि लड़ाई एक मानसिकता है, भलाई दूसरी मानसिकता है। मनुष्य अन्दर से जो प्रकृति रखता है वह कड़ाई से भलाई की ओर जाती है। प्रसाद जी ने लिखा था— ‘निकल रही थी मर्म वेदना करुणा विकल कहानी सी, वहां अकेली प्रकृति सुन रही हंसती सी पहचानी सी।’ प्रकृति जो कभी हमें सजाती और संवारती है, वही रोने के लिए भी विवश कर देती है।
—पिरकिरती कूं परास्त नायं कर सकै कोई।
—उसे धैर्य से ही परास्त किया जा सकता है। अन्दर की प्रकृति हो या बाहर की, कुल मिलाकर घोर संग्राम के समय में और विकट विपत्तियों में हमारे जीवन में कुछ कांट-छांट करती है। हमारे वे एक सौ तेतीस जवान आपदा प्रबंधन में महारत रखते थे। उनको ऐसी दीक्षा दी गई थी कि इतनी ऊंचाई पर अगर कोई विपदा आए तो तुम कैसे अपने देशवासियों को बचाओगे। वे स्वयं ही काल-कलवित हो गए। दूसरे देश के मनुष्य उनकी देह निकाल रहे हैं। दूसरे देश के सैनिकों को धन्यवाद दूंगा कि उन्होंने हमारे सैनिकों को सम्मानपूर्वक तिरंगे में लपेटने की सुविधा प्रदान की। धन्यवाद देना चाहता हूं आमिर खान को जिन्होंने स्कूल के प्रिंसिपल से कहा है कि टूटी इमारत बनाने में मदद करेंगे। प्रिंसिपल ने साधन और श्रमशक्ति को देखकर अनुमान से बताया है कि पुनर्निर्माण में आठ-नौ महीने लग जाएंगे। बहुत समय होता है आठ-नौ महीने चचा! स्कूल को तो आठ दिन में खड़ा कर देना चाहिए। मन करता है कि मैं भी लेह पहुंच जाऊं और जो घर, स्कूल कार्यालय टूटे हैं, उजड़े हैं, वहां कार सेवा करूं। बच्चों को पढ़ाऊं। किलकारियों को वापस ले आऊं।
—चल तौ मैं ऊं चलुंगो तेरे संग। बता कब चलैगौ?

Wednesday, August 04, 2010

चमन को अचरज भारी

—चौं रे चम्पू! कछू नई-पुरानी सुना, चुप्प चौं ऐ?
—चचा, नई तो ये कि जल-पुरुष राजेंद्र सिंह से मुलाक़ात हुई और पुरानी ये कि मैं एक पुरानी पंक्ति पर अटक गया। इन दिनों इतनी बरसात हो रही है, फिर भी पीने के पानी का संकट है। जगह-जगह बुरा हाल है। इतनी बरसात के बावजूद अकाल है। एक गीत की प्रथम दो पंक्तियों में दूसरी तो याद थी, पहली याद नहीं आ रही थी।
—तू दूसरी ई सुना।
—दूसरी पंक्ति है— ‘यही चमन को अचरज भारी, पानी कहां चला जाता है?’ किशोरावस्था में यह गीत सुना था, धुन भी याद है। मसला पहली लाइन का था। मैं सोचने लगा गोपाल सिंह नेपाली की है या शिशुपाल शिशु की, बच्चन जी की तो नहीं ही है। चचा उदय प्रताप सिंह से पूछा। वे बोले— ‘पंक्ति तो याद आ रही है, लेकिन कवि कौन है, कुछ समझ में नहीं आ रहा। सोम ठाकुर जी से पूछा। वे तपाक से बोले— ‘यह पंक्ति ग्वालियर वाले आनन्द मिश्र की है।’ लेकिन पहली पंक्ति? इस पर वे भी मौन हो गए, लेकिन चचा, जैसे ही सोम जी ने आनन्द मिश्र का नाम बताया, मुझे पहली पंक्ति का आधा हिस्सा याद आ गया। सन चौंसठ-पैंसठ की बात होगी। उनका चेहरा अब मेरे सामने था। वे आकाश की ओर देख कर गीत शुरू किया करते थे— ‘बादल इतना बरस रहे हैं...’, लेकिन इसके आगे क्या?
—हम पानी कूं तरस रए हैं...!
—नहीं चचा नहीं! पानी दूसरी पंक्ति में आ चुका, अब पहली में नहीं आ सकता। कल भोपाल में मिले ग्वालियर वाले प्रदीप चौबे। उन्होंने कहा कि ग्वालियर के पुराने लोगों में दामोदर जी बता सकते हैं, आनंद मिश्र के छोटे भाई प्रकाश मिश्र तो अभी सो कर न उठे होंगे। फोन लगाया। दामोदर जी के यहां घण्टी बजती रही। मैंने कहा बैजू कानूनगो को ट्राई करिए! बात बन गई। उन्होंने तो पूरा गीत सुना दिया— ‘बादल इतना बरस रहे हैं, फिर भी पौधे तरस रहे हैं, यही चमन को अचरज भारी, पानी कहां चला जाता है।’ वाह चचा वाह! सुन कर आनंद आ गया। मैंने कवि-जगत के जलपुरुष आनंद मिश्र को मन ही मन प्रणाम किया, जिन्होंने अबसे पचास वर्ष पहले यह गीत लिखा था।
—और जल-पुरुस राजेंद्र सिंह?
—वे व्यवहार-जगत के जल-पुरुष हैं। पानी के लिए ज़बरदस्त सकर्मक चेतना रखते हैं। राजेन्द्र सिंह जल संरक्षण के घनघोर समर्थक हैं। कहीं इन्हें वाटरमैन कहा जाता है, कहीं पानी बाबा। सरकारी नौकरी छोड़कर इन्होंने राजस्थान के ग्यारह जिलों के आठ सौ पचास गांवों में चैकडेम बनाकर वर्षा जल संरक्षण का बहुत ज़ोरदार काम किया। सूख गई नदियों के पुनरुत्थान में जुट गए। ग्रामीणों को जल के प्रति आत्मनिर्भर बनाया। और चचा, जब भी कोई अच्छा काम करता है तो इनाम भी मिलते हैं। इन्हें बहुत सारे सम्मान मिले, मैगसैसै पुरस्कार से नवाजे गए।
—मुलाकात भई तौ वो का बोले?
—वे कहने लगे कि ये देश बड़ा अद्भुत है जो नदियों को मां कहता है, लेकिन पिछले नब्बे वर्षों में जिसे हम विकास कहते हैं उसने हमारे ज्ञान की विकृति, विस्थापन के साथ एक तरह से हमारे संस्कार का विनाश शुरू कर दिया। जिसे हम मां कहते हैं उसे हमने मैला ढोने वाली मालगाड़ी बना दिया। अधोभूजल को ट्यूबवैल, बोरवैल और पम्प लगा कर सुखा दिया। नदियां मरने लगीं।
—तौ राजेन्द्र सिंह नै का कियौ?
—चाचा, उन्होंने तरह-तरह की तकनीकों से ग्रामीण क्षेत्रों में जलसंरक्षण के कमाल के काम किए। जनचेतना अभियान छेड़ दो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है। उन्होंने कहा कि बरसात के बाद पानी जब बहुत तेज़ दौड़े तो उससे कहो धीमा चले, जब धीमे चलने लगे तो कहो कि रैंगे,और जब वह रैंगने लगे तो कहो कि ठहर जा और जब पानी ठहर जाएगा तो जहां-जहां धरती का पेट खुला मिलेगा वहां-वहां बैठ जाएगा। ज़रूरत पड़ने पर नदियों में निकाल आएगा। फिर यह अचरज नहीं होगा जो पचास साल पहले आनन्द मिश्र को हुआ था कि पानी कहां चला जाता है। पानी कहीं नहीं जाएगा। हम उसको धरती के गर्भ में सुरक्षित रखना सीख लें, बस।
—बरसात है रई ऐ, बगीची कौ पानी बगीची में ई रोक लें, आजा।