Tuesday, March 15, 2011

फेस-संवर्धक केश-कर्तक नरेश

—चौं रे चम्पू, देर कैसे है गई!
—चचा, महीने भर से बाल नहीं कटाए थे, आज सोचा तुम थोड़ा इंतज़ार कर लोगे और क्या! वहां बैठा तो पूरे दो घंटे निकल गए।
—दो घंटा में बार कटे तेरे?
—अरे चचा. एक बार उस दुकान में घुस जाओ तो दो घंटे लगना मामूली बात है। अब वहां सिर्फ़ बाल नहीं कटते हैं, जेब कटती है। पहले बाल कटाई की दुकान पर ग्राहकोँ की लाइन लगती थी। हर पांच मिनट में सीट पर ग्राहक बदल जाते थे। अब मैं देखता हूं कि एक ग्राहक जिस सीट पर जम जाता है वह दो घंटे से पहले नहीं उठता। दरअसल, अब लोग आमतौर से केशवदास वाली पीड़ा नहीं भुगतना चाहते।
—केसवदास की कौन सी पीड़ा?
—अरे, केशवदास ने कहा था न— “केशव केसन अस करी, जस अरिहू न कराय, चन्द्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि-कहि जाय’। अब बुढ़ापे में भी स्वयं को कोई बाबा कहलवाना पसंद नहीं करता। वैसे श्वेत-धवल कितना अच्छा लगता है, शान्ति का रंग, पर श्वेत केश अच्छे नहीं लगते। आधा घंटे में लगती है डाई। तब तक बैठा-बैठा क्या करेगा भाई? पूछता है हेयर ड्रैसर कि सर! सिर का काम तो हो गया इस बीच फेश्यिल कर दूं? जब तक आपके बाल रंगेंगे तब तक चेहरे पर रौनक आ जाएगी। फिर शुरू होता है जेब कटाई पार्ट टू। क्लींज़र, स्क्रब, जैल-रब, फोम लगी फिर भाप, तू फंदे में आ चुका, बैठा रह चुपचाप।
—खूब दोहा बनायो रे!
—दोहा बनाने में देर नहीं लगती चचा!
—तौ बाल के परयायबाची बता, दोहा में!
—लो सुनो— केश अलक कच सिरोरुह, सारंग सिर के बाल, छाज फूस सिर अग्र कछ, छल्ला जटा बबाल। एक दोहा और सुन लो— चुटिया जूड़ा ताज सिख, उलझे चिपके केश, झूंटा झोंटा घूंघरा, कुल्ला रोआं शेष।
—मान गए लल्ला! अब दुकान की आगे कि कहानी बता।
—फेस-संवर्धक केश-कर्तक का नाम नरेश था। उसने भी एक दोहा सुना दिया— ‘श्वेत-श्वेत सब कुछ भलो, श्वेत भलो नहीं केश, नारी रिझे, ना रिपु डरै, न आदर करै नरेश।’ मैंने कहा, नरेश! बस तू तो आदर करता रह, जो चाहे कर दे भैया। तो चचा, उसने एक कटोरे में घोरुआ सा घोला और रंग दिए बाल। इतनी देर में केश-काव्य के संदर्भ में मुझे कभी जायसी याद आएं, कभी विद्यापति, कभी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कहा था— ज़ुल्फों को लेके हाथ में, कहने लगा वो शोख, गर दिल को बांधना हो तो, काकुल से बांधिए।’ हालांकि ये बात महिलाओं के संदर्भ में कही गई थी, उनकी ज़ुल्फ़ें दिल को बांध लेती हैं, लेकिन आजकल पुरुष भी औरतों के दिल को बांधने के लिए अपनी ज़ुल्फ़ों पर ख़ासा काम कराते हैं। जायसी ने कहा था— ‘भंवर केश वह मालति रानी……
—अरे छोड़ चम्पू विद्यापति और जायसी। तू अपनी बात कर। कित्ते पइसा दै आयौ?
—चचा पहले बताओ कि आपने पिछली बार बाल कब कटाए थे?
—अरे हमनैं तौ यईं बगीची पै हरिया बुलाय लियौ ओ। एक ईंट पै वो बैठौ, एक ईंट पै हम बैठे। छोटौ सौ दर्पन, एक अदद उस्तरा और खैंच दई दाढ़ी। पूरे दस रुपैया लै गयौ। पैलै तौ दो रुपाइया में काम है जातो।
—आपने दिए दस रुपए और बेहोश न हो जाओ तो मैं बताऊं कि मुझसे कितने ले लिए नरेश ने?
—बता!
—पूरे डेढ़ हज़ार चचा, डेढ़ हज़ार।
—डेढ़ हज़ार! अरे डेढ़ हज़ार में तौ पूरे गांम के बार बन जायं! जे का भयौ!
—अब चचा क्या बताऊं! जो मुझसे पहले बैठे हुए थे और मुझसे बाद में जाने का इरादा रखते थे, वे हाई क्लास फेश्यिल करा रहे थे। स्पेशल मालिशें हो रही थीं। विदेशी अथवा आयुर्वेदिक तेल लग रहा था। सिर में क्या लगा रहे थे, हमें ही तेल लगाया, हमें ही चूना। ड्रायर मार कर बाल फुला दिए और बोला, मना है छूना!

6 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पता नहीं क्या क्या कटता है वहाँ, यदि आपको कटवाना हो।

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

होरी ते पहले ही रंगबाजी कर दई जे तो तुम्मन ने !और बोऊ कारे रंग ते!मजो सो आ गयो!

डॉ टी एस दराल said...

हा हा हा !
होली से पहले डाई !
क्या ज़रुरत थी भाई ।
बाल बस कटवा आते ।
होली पर तो खुद ही रंग बिरंगे हो जाते ।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

नरेश है तो चढावा भी नरेशी ही रहेगा ना :)

किलर झपाटा said...

ही ही ही ही, हा हा हा हा
डेढ़ हजार में, जेब तराशा
रंग बदल कर कलर हो गया,
कर्तन नर्तन किलर झपाटा

Neeraj said...

वैश्वीकरण के नाम पे देश में सिर्फ लूट बढ़ी है , सुविधाएँ नहीं |