Wednesday, March 30, 2011

मीनाक्षियां और मसूराक्ष के मंसूबे

चौं रे चम्पू! हर बखत काम, हर बखत काम! जे अच्छी बात नायं। कछू पल सकून के चौं नायं निकारै?

चचा एक हफ़्ते से भागम-भाग लगी है, इसमें तो कोई शक नहीं, पर सुकून मिला तब, जब आपकी बहूरानी ने एक कविता सुनाई।

अपनी लिखी कबता सुनाई का?

नहीं, अपनी नहीं सुनाई। इधर नागार्जुन का बड़ा हल्ला चल रहा है। जिधर देखो उधर नागार्जुन पर सेमीनार और संगोष्ठियां। आपकी बहूरानी भी एक संगोष्ठी के लिए नागार्जुन पर आलेख तैयार करने में जुटी थीं। पिछले एक हफ़्ते से वे नागार्जुनमय हुई पड़ी हैं। बाबा से सातवें, आठवें दशक में काफी पारिवारिक-सा नाता रहा था। सो अब आकर उन्हें पढ़ने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने बाबा की एक कविता सुनाई चचा। सौन्दर्य प्रतियोगिताशीर्षक था उस कविता का। क्या शानदार कविता है। उसे सुनकर मेरी सप्ताह भर की थकान दूर हो गई।


बता-बता! कौन सी कबता सुनाय दई?

चचा, ज्यों की त्यों तो याद नहीं है, पर कविता ऐसी है जिसका उल्लेख समीक्षकों ने ज़्यादा नहीं किया है। बाबा का जिक्र आते हीअकाल और उसके बाद’, ‘प्रेत का बयान’, ‘तीन दिन तीन रात’, ‘काले धन की बैसाखी’, ’दंतुरित मुस्कान’, ‘बादल को घिरते देखा हैजैसी कविताओं का हवाला ज़्यादा दिया जाता है। सौन्दर्य प्रतियोगिताकविता का सन्दर्भ कहीं न कहीं ज़रूर आया होगा, पर मेरे देखने में नहीं आया।

कबता तौ बता!

कविता की कहानी ये है कि गंगा की मछली और यमुना की मछली दोनों सहेलियां थीं। हिल-मिल कर रहती थीं। दूर भी निकल जातीं थीं। संगम से आगे भी निकल गईं एक बार। उन दोनों में ईर्ष्या की आग धधक उठी कि कौन सुन्दर है। उन्हें रेती पर जाड़े की धूप में पसरा पड़ा कछुआ दिखाई दिया। सुन्दर नेत्रों वाली मछलियों ने प्रणाम किया। पूछने लगींबाबा, बाबा, बाबा! बताओ हम दोनों में से किसका वाजिब है ख़ूबसूरती का दावा। अब उस सुधी शिरोमणि कछुए ने गर्दन लंबी करके मछलियों की ओर निहारा और दोनों को खुश करते हुए बोलातू भी सुन्दर, तू भी सुन्दर। तुम दोनों का दावा ठीक है। मछलियों को बात हज़म नहीं हुई। कहने लगीं कि फिर हम क्यों बेकार में लड़ते रहे! कछुए ने कहाअसल बात तो ये है कि तुम दोनों की बनिस्बत सुन्दर तो मैं हूं। बिल्लौरी कांच-सी कांति वाली गर्दन है। बरगद-सी छतनार मेरी पीठ है। नन्हे मसूर के दानों जैसे ये नेत्र हैं। किसी ने ऐसी खूबसूरती नहीं देखी होगी। आ जाओ, जाओ। मेरे निकट आ जाओ! मत घबराओ! दोनों भाग कर ग़ायब हो गईं, संगम की अतल जलराशि में और महामुनि का प्रवचन अधूरा रह गया। कुछ इसी तरह के भाव थे उस कविता के।

भड़िया चित्रन ऐ रे!

चचा, इसमें बिना नारेबाज़ी के सहज स्त्री-विमर्श है। यमुना वाली सांवली रही होगी, गंगा वाली गोरी। स्त्रियां प्रायः ख़ूबसूरती के मुद्दे पर प्रतियोगिताओं, प्रतिस्पर्धाओं, ईर्ष्याओं में घिरी रहती हैं, लेकिन जैसे ही किसी लोलुपाधिप की लपलपाती लालसा की गर्दन बाहर आती है, वहां से भाग खड़ी होती हैं। मीनाक्षियां समझ जाती हैं मसूराक्ष के मंसूबे। बड़े-बड़े मुनि और प्रवचनाचार्य बूढ़े भी पीछे नहीं रहते। कविता में स्त्री मनोविज्ञान और पुरुष मनोविज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन है। इन दिनों पुरुष को भी अपने सौन्दर्य की चिंता सता रही है। आज स्त्रियों के जितने पार्लर हैं उतने ही पुरुषों के हैं। रिझाने के मामले में पुरुष अपनी ख़ूबसूरती का स्वयं बखान करने लगा है। एक बात यह भी कि संस्कृत के महापंडित होने के बावजूद बाबा ने गंगा-जमुनी भाषा अपनाई, यानी उर्दू शब्दों का जमकर इस्तेमाल किया है। जैसे वाज़िब, खूबसूरती, दावा, बनिस्बत, ग़ायब। इस कविता में दोनों भाषाओं का संगम हो गया है। अगली बात यह कि गंगा-जमुनी तहज़ीब में औरत चाहे मुस्लिम हो, हिन्दू या किसी भी धर्म की, कछुओं के लिए एक जैसी है, चमकीली, फिसलनी, रपटनी देह वाली। कविता में तुकों का निर्वाह भी जानदार है। आसान लगती है पर समाजशास्त्रीय, मनोविश्लेषणात्मक और सौन्दर्यशास्त्रीय सारे एंगिल मौजूद हैं।

तेरौ एंगिल कौन सौ ऐ?

मार्क्स एंगिल्स की किताब पढ़ के बताऊंगा।

3 comments:

Rajesh Kumar 'Nachiketa' said...

बाबा जी के बारे में नयी बता जानने को मिली... आपका विश्लेषण भी खूब था....

mridula pradhan said...

bahut achchi lagi ye baaten.

स्वप्नेश चौहान said...

bahut achchhi jaankaari hai jee....